सोमवार, 18 जुलाई 2011

बुन्देलखण्ड : सियासत का कुरूक्षेत्र




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भारतीय राजनीति में एक पंक्ति जुमले की तरह कही और सुनी जाती है और कम से कम हर राज्य का मुख्यमंत्री अपने पूरे शासनकाल के दौरान इसे एक बार जरूर दोहराता है कि ‘केंद्र हमारे साथ सौतेला व्यवहार कर रहा है’ और अगर केन्द्र एवं राज्य में अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारें हैं तब तो यह पंक्ति और भी महत्त्व पाने लगती है. बात प्राकृतिक आपदा की हो या विकास से जुड़ी हो या पूंजी की कमी जैसी अन्य कोई भी समस्या हो, राज्य सरकारें जहां इस वाक्यांश को कभी रामबाण तो कभी सुरक्षा कवच की तरह इस्तेमाल कर अपनी जिम्मेदारी से बच निकालना चाहती हैं तो वहीं दूसरी ओर केन्द्र सरकार भी सारी जिम्मेदारी राज्य सरकार की बता कर अपना हाथ साफ करने में लग जाती है. भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की यह एक बड़ी समस्या है जो समय के साथ बढ़ती ही जा रही है. केंद्र बनाम राज्य या राज्य बनाम केंद्र की इस टकराहट में अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ दूसरों पर मढ़ देने की यह एक नयी राजनीति आज चल पड़ी है. बुन्देलखण्ड भी इससे अछूता नहीं है बल्कि वह इस बीमारी से सबसे ज्यादा प्रभावित है. यही कारण है कि इस क्षेत्र में विकास, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी और पलायन जैसे अहम मुद्दे असल में लगातार पीछे छूटते जा रहे हैं. केंद्र और राज्य के इसी झगड़े में आज ‘उत्तर प्रदेश का कालाहांडी’ कहा जाने वाला बुन्देलखण्ड अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है और लोग घास की रोटियां खाने को मजबूर हो रहे हैं.

उत्तर प्रदेश के सात जिलों; बांदा, झांसी, चित्रकूट, ललितपुर, महोबा, जालौन और हमीरपुर तथा मध्य प्रदेश के छ: जिलों; दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दामोह और सागर को मिलाकर बुन्देलखण्ड क्षेत्र की परिकल्पना की जाती है. यह क्षेत्र भारत के लगभग मध्य में स्थित है और वर्त्तमान में हुए शोध-कार्यों के अनुसार तमाम प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न भी. मध्यकालीन भारत के साथ ब्रिटिशकाल में भी यह क्षेत्र अपना महत्त्व रखता था लेकिन वर्त्तमान में इसकी पहचान आर्थिक और औद्योगिक रूप से भारत के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक की बन गई है. भारत की इतनी प्रगति के बावजूद यह क्षेत्र आज भी विकास की मुख्यधारा से बहुत पीछे है तो उसका एक प्रमुख कारण इसका सही प्रतिनिधित्व न हो पाना है.

वस्तुतः आज बुन्देलखण्ड राजनीति के भवंर जाल में फस गया है. चुनाव के समय सभी पार्टियां विकास का हवाला देती हैं. लेकिन पांच-साला प्रमाण-पत्र पाने के बाद केवल अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में लग जाती हैं. उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में पूर्व या वर्त्तमान में जिसकी भी सरकारें रही हों, जनता ने उन्हें सत्ता सौंपी इसलिए कि सरकार उन्हें विकास का अवसर मुहैया करायेगी. उन्हें बिजली, पानी और सड़क के साथ-साथ रहने को घर, खाने को दो जून की रोटी और जिंदगी को आगे बढ़ाने के लिए रोजगार देगी. लेकिन हुआ उसका ठीक उलटा और जनता को पछतावे के सिवाय कुछ नहीं मिला. विकास की बात अब इन सरकारों से छलावा लगने लगा है. सच्चाई तो यह है कि जहां विपक्ष बुन्देलखण्ड की त्रासदी पर बस शोर-गुल मचा कर शांत हो जाया करती है वहीं सरकार गरीबी, भुखमरी, पलायन, अशिक्षा और कृषि की बदहाल स्थिति को बदलने के लिए मूलभूत सुविधाएं तक उपलब्ध कराने में हीला-हवाली करती है.

उत्तर प्रदेश में मायावती का ‘सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय’ का नारा भी इस क्षेत्र की बदहाली को नहीं कम कर सका तो मध्यप्रदेश में भगवाधारी सरकार भी अपने मूल स्वभाव और चरित्र के अनुरूप इन मुद्दों से अपनी खास दूरी बनाए रही. केंद्र की कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने इस दिशा में 2008 में एक इंटर-मिनिस्ट्रियल ग्रुप का गठन कर जरूर एक पहल की लेकिन यह भी न काफी रहा. 2009 में इस समिति की सिफारिश पर 7,266 करोड़ रूपये का एक पैकेज जारी किया गया जिसके तहत उत्तर प्रदेश के इन सात जिलों खातिर 3,706 करोड़ तथा मध्य प्रदेश के छ: जिलों खातिर 3,760 करोड़ रूपये दिए गए. लेकिन उत्तर प्रदेश को आवंटित यह राशि जहां पिछले लगभग पौने दो सालों में आधे से अधिक खर्च नहीं हो पाई वहीं मध्यप्रदेश ने भी कुछ खास प्रगति नहीं की है.

दरअसल, जनता के पैसों की चारों तरफ खूब लूट मची हुई है और हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बुन्देलखण्ड के पानी शुद्धीकरण के लिए 200 करोड़ रूपये और जारी करके कम से कम लूटेरों को और खुश कर दिया होगा. केंद्र सरकार समय-समय पर पैसों का आवंटन कर अपनी जिमेदारी को पूरा मान लेती है और राज्य सरकारें दिए गए पैसों को समस्या समाधान हेतु अपर्याप्त मानकर उतना भी खर्च नहीं करना चाहती हैं. जनता के इतने अधिक पैसों का अगर पचास प्रतिशत भी सही इस्तेमाल हो तो बुन्देलखण्ड की सूरत खाफी हद तक बदल जायेगी. लेकिन योजना पर योजना और पैसे पर पैसे का यह खेल पहले भी खूब चलता था और आज भी चल रहा है. परिणाम स्वरूप यह भू-भाग न तो आर्थिक या औद्योगिक रूप से संवृद्ध हो पा रहा है और न ही सामाजिक रूप से. बुन्देलखंड का समाज लगातार पिछड़ता जा रहा है और इस बीच अगर कोई संवृद्ध हो रहा है तो सिर्फ वहां के राजनीतिक लोग और उनकी रची राजनीति.

हालत यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी समेत तमाम सियासतदान बुन्देलखण्ड की तपती धरती पर खड़े होकर केवल एक दूसरे के खिलाफ आग उगलने का काम करते हैं. लेकिन यह चिंता की बात है कि इनके बीच से आखिर कोई ऐसा क्यों नहीं निकल पा रहा है जो बुन्देलखण्ड की तपती धरती को ठंढा कर सके. कांग्रेस के युवराज अपने मिशन 2012 की सफलता खातिर बुन्देलखण्ड को एक राजनीतिक मुद्दा बनाकर हाथ से जाने नहीं देना चाहते हैं. इसीलिए उन्होंने यह बयान भी दे डाला कि ‘बुन्देलखण्ड की आवाज दिल्ली तक पहुंच गई लेकिन लखनऊ तक नहीं पहुंची है. मैं इसे वहां तक पहुंचा कर दम लूंगा.’ बहुत सोचने के बाद भी मेरी समझ में यह नहीं आया कि आखिर कौन सी आवाज दिल्ली तक पहुंची है? और अगर कुछ पहुंची भी है तो इसे पहुंचने में इतने साल क्यों लग गए? यह भी जांचा जाना चाहिए कि यह आवाज पूर्व की कांग्रेस सरकारों तक क्यों नहीं पहुंची और अगर पहुंची थी तो सुनी क्यों नहीं गई? यानी बुन्देलखण्ड एक बड़ी समस्या से ग्रस्त है, कांग्रेस समेत उसके युवराज को यह समझने में इतनी देर क्यों लग गई? क्या उत्तर प्रदेश के राजनीतिक माहौल को भांपकर चुनाव के नजदीक आने का इंतज़ार हो रहा था या और भी कोई कारण है, यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए. दूसरा यह कि बुन्देलखण्ड की आवाज को लखनऊ पहुंचाने में आपकी रुचि हो या न हो लेकिन कांग्रेस को लखनऊ पहुंचाने की आपकी रुचि जगजाहिर है. इसलिए बुन्देलियों के अमन और चैन के लिए आपकी तथाकथित ‘लड़ाई या संघर्ष’ महज एक राजनीतिक स्टंट के सिवाय और कुछ नहीं लगती है. जनता को बरगलाने का कांग्रेस का यह प्रपंच बंद किया जाना चाहिए.

बुन्देलखण्ड की इस माली हालत के लिए राहुल गांधी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की वर्त्तमान और पूर्व की सरकारों को प्रमुख दोषी मानते है. लेकिन वह शायद यह भूल जाते है कि इन दोनों प्रदेशों में उनकी ही पार्टी ने सबसे अधिक समय तक शासन किया है. सन 1990 के बाद के भारतीय राजनीति में खासतौर से राज्यों और केंद्र में सरकारों का आकलन करें तो कांग्रेस के कमजोर होने और क्षेत्रीय दलों के उदय होने के बाद की बदली परिस्थितियों में प्राय: केन्द्र और राज्यों में अन्य-अन्य दलों की सरकारें या गठबंधन की सरकारें रहीं हैं. ऐसे में सौतेली राजनीतिक व्यवस्था भारत में कोई 20 साल के आस-पास की ही उपज लगती है. कहने का मतलब यह है कि इसके पूर्व जब कांग्रेस की सरकार केंद्र और ज्यादातर राज्यों में रही होगी तो उसने विकास की नीति क्यों नहीं अपनाई? यह कहकर मैं बाकी दलों के प्रति सहानुभूति नहीं प्रकट कर रहा हूं. मेरे कहने का अर्थ इतना भर है कि बुन्देलखण्ड की जो हालत पिछले लगभग डेढ़ दशक में हुई है जाहिर तौर पर उसकी खातिर और पूर्व की सरकारें, उनकी नीतियां और लापरवाहियां भी जिम्मेदार रहीं हैं और इसे बाद की सरकारों ने और बढ़ाया ही है.

बुन्देलखण्ड की बदहाली पर दिल्ली स्थित एक गैर सरकारी संस्था ‘Centre for Environment and Food Security’ की एक महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट पर शायद किसी भी सरकार का ध्यान नहीं गया होगा. इसके अनुसार ‘ऐसी बात नहीं है कि बुन्देलखंड में सरकारी योजनाओं का अभाव है. बल्कि हकीकत तो यह है कि यहां इन योजनाओं का कार्यान्वयन सही तरीके से नहीं हो पाता है इसलिए योजाएं विफल हो जाती है.’ मसलन, प्रदेश में कोई भूखा न रहे इसके लिए एपीएल, बीपीएल, अन्नपूर्णा और अन्त्योदय जैसी अनेक योजनाएं बहुत समय से चलाई जा रहीं हैं लेकिन आज भी बहुत लोग भूखे सोते हैं और अंततः मर भी जाते हैं. उनमें से तो कईयों को तो इनके नाम तक पता नहीं होते होंगे. इसलिए यह एक बड़ी समस्या है कि केन्द्र या राज्य सरकारों का ज्यादा ध्यान पैसों के आवंटन और योजनाओं के बनाने में ही लगा रहता हैं. जबकि उनकी बनाई हुई योजनाएं कितनी व्यावहारिक हैं या उसको सही तरीके से अमल में लाया जा रहा है कि नहीं या उस पर आवंटित राशि का सही इस्तेमाल हो रहा है कि नहीं, इस ओर वे कम ही ध्यान देती हैं. अगर सम्पूर्ण ऊर्जा का दस प्रतिशत भी इधर लगाया जाए तो परिणाम पहले से काफी बेहतर हो सकते हैं. स्पष्ट है कि समस्या न तो धन के कमी की है और न ही योजनाओं के अभाव की. असल समस्या है उपलब्ध धन के आधार पर योजना के सही क्रियान्वयन की और जागरूकता लाने की है. अगर केंद्र सरकार की निगरानी में राज्य सरकारें इस नीति पर आगे बढ़ें तो संभव है कि बुन्देलखण्ड विकास की राह पकड़ सकेगा, सूखे और भुखमरी से पीड़ित बुन्देलखण्ड संवृद्ध बुन्देलखण्ड बन सकेगा.

धर्मेन्द्र प्रताप सिंह, पीएच.डी. (हिन्दी), दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली–7