बुधवार, 1 जून 2011

प्रेम और प्रकृति के कवि : केदारनाथ अग्रवाल


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हिंदी भाषा और साहित्य के लिये यह वर्ष युगान्तर उपस्थित करने वाले रचनाकारों की जन्मशताब्दियां मनाने का वर्ष है। लेकिन जन्मशताब्दी वर्ष मनाने का मतलब रचनाकार के प्रति उत्सवधर्मी होकर उन्हें याद भर करना कतई नहीं है। यह एक ऐसा अवसर होता है जब हम किसी रचनाकार के रचे हुये को फिर से टटोलते हैं और यह जांचने-परखने की कोशिश करते हैं कि समाज में हुये परिवर्तनों एवं समसामयिक चिंताओं के साथ उनकी कृतियां खुद को कहां तक जोड़ पाती हैं। जाहिर है कि किसी भी रचना की उम्र या रचनाकार का कद इन्हीं कसौटियों से तय होता है। इस लिहाज से यह समय रचना के साथ-साथ रचनाकार के भी पुनर्पाठ का समय होता है।

सामान्यतः यह देखा गया है कि जो कवि जितना अधिक क्रांतिकारी रहा है, उसने उतनी ही अधिक प्रेम कविताएं भी लिखी हैं। हिन्दी के निराला क्रांति के साथ-साथ नारी-सौन्दर्य और प्रेम पर बेहतरीन कविताएं लिखते हैं तो उदबोधन के कवि दिनकरहुंकारके साथ-साथउर्वशीकी भी रचना करते हैं। केदारनाथ अग्रवाल के रचना-संसार का स्वरूप भी कुछ ऐसी ही विविधता लेकर हमारे सामने आता है।

1 अप्रैल 1911 को उत्तर प्रदेश के बांदा जनपद के कामासिन गांव में जन्मे केदारनाथ अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपने अध्ययन के दौरान ही लिखना आरंभ कर दिया था। वे सन 1930 के पहले से ही कविताएं, विशेषकर प्रेम-विषयक कविताएं लिख रहे थे लेकिन 1936 के प्रगतिशील साहित्यिक आन्दोलन ने उनकी चेतना में एक गहरा परिवर्तन उपस्थित किया। 1938 के आस-पास तक आते-आते उनका कवि मन मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित होकर कविता करने लग था। उनका पहला काव्य-संग्रहनींद के बादलउनके दूसरे काव्य-संग्रहयुग की गंगाके बाद आता है जिसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है – “ ‘नींद के बादलरात के जादू के बाददिन के लाल सवेरे के साथ ही ओझल हो जाते हैं। इस प्रकार मेरे नये सबेरे के साथ प्रेम की इस संग्रह की कविताओं की इति हो जाती है।यहांनये सवेरेका उनका सीधा मतलब मार्क्सवाद से ही है। लेकिन चूंकि केदारनाथ मूलतः रूमानी कवि हैं। प्रेम, प्रकृति और सौन्दर्य उनका प्रिय विषय रहा है। इसलिये उनमें प्रेम-कविताओं का अंत नहीं हुआ और उनके रचना-संसार की यह एक धारा आगे भी चलती रही। उनके तीन कविता संग्रह – ‘जमुन जल तुम’, ‘हे मेरी तुमऔरआत्मगंधइस संदर्भ में देखे जा सकते हैं।

स्पष्ट है कि केदारनाथ अग्रवाल के काव्य-संसार को दो प्रमुख धाराओं में देखा जा सकता है। पहली धारा के अंतर्गत केदारनाथ अग्रवाल मार्क्सवादी दर्शन को जीवन का आधार मानकर जनसाधारण के जीवन की गहरी एवं व्यापक संवेदना को अपनी कविताओं में मुखरित करते हैं। इस धारा का उनका जनवादी लेखन पूर्णरूपेण भारत की सौंधी मिट्टी की देन है। इसलिये इनकी कविताओं में भारत की धरती की सुगंध और आस्था का स्वर मिलता है। जबकि दूसरी धारा प्रेम, प्रकृति और सौन्दर्य से संबंधित कविताओं की रही है।

केदारनाथ अग्रवाल के कविताओं में अभिव्यक्त प्रेम उनके समकालीन अन्य कवियों से भिन्न है। अन्य कवियों ने अपनी प्रेयसी को आधार बनाकर प्रेम कविताएं लिखी है तो केदारनाथ ने अपनी पत्नी, अपनी जीवन संगिनी के प्रति अपना प्रेम प्रकट कर उस पर विवाह से लेकर वृद्धावस्था तक कई कविताएं लिखी हैं। इसलिये उनकी कविताओं में अभिव्यक्त प्रेम उनके निजी अनुभव से प्राप्त अभिव्यक्ति है। इसी कारण वह सुलझा हुआ तथा यथार्थ पर आधारित है। उसमें कल्पना का कोई स्थान नहीं है। प्रेम पर लिखी उनकी शुरूआती दौर की कवितामैंने प्रेम अचानक पायाइसका प्रमाण है

गया ब्याह में युवती लाने / प्रेम ब्याह कर संग में लाया

प्रेम पुलक से प्रेरित होकर / प्रेम रूप को अंग लगाया

केदारनाथ के प्रेम की एक बड़ी विशेषता यह है कि वह क्षण-भर की अतिशबाजी नहीं है बल्कि वर्षों तक अपना प्रकाश अमन्द बनाए रखने वाला प्रेम है। वर्षों तक एक साथ रहने वाले प्रेमी का, जीवन साथी का प्रेम है। ऐसे कवि का प्रेम है जो जीवन के प्रत्येक मोड़ पर परिपक्व, सुकुमार और मानवीय बनता जाता है। मन को तरंगित करने वाले प्रेम की अभिव्यक्ति करता हुआ कवि कहता है

मांझी बजाओ बंसी / मेरा मन डोलता है,

जैसे जल डोलता है / जल में जहाज / जैसे पल-पल डोलता है

केदारनाथ की प्रेम-विषयक कविताएं यौवन की मधुर अनुभूतियों तथा विविध प्रणय-प्रसंगों से आप्लावित हैं। प्रेम संबंधी पहली कवितामैं पति हूं-अब तुम पत्नी होमें इसे देखा जा सकता है

मेरे आलिंगन में आकर / मेरे अंग-अंग से मिलकर

अपनी सुधि-सुधि सब खो डालो / फिर अलग हो गले लगा लो

केदारनाथ की प्रेम कविताओं की एक अन्यतम विशिष्टता है उनकीऐन्द्रियता उनके प्रेम-प्रसंगों में शरीर को लेकर कोई कुंठा या अपराध-भाव नहीं है। इस दृष्टि से उनका प्रेम और काम एकात्म है। उनकी कविताएं इस धारणा को तोड़ती हैं किप्रेम शरीर के संपर्क से अपवित्र हो जाता है।वे पूरी गंभीरता से शरीर को स्वीकृति प्रदान करते हैं। खुजराहों के मंदिरकविता में प्रेम के इस पवित्र स्वरूप का दर्शन कराते हुए कवि लिखता है

याद दिलाते हैं हमको उस गए समय की / जब पुरूषों ने उमड़-उमड़कर

रोमांचित होकर समुद्र सा - कलाकेलि की कमनियों को / बाहुपाश में बांध लिया था

और भोग-संभोग सुरा का रसपान कर / देशकाल को, जग-मरण को भुला दिया था

केदारनाथ का प्रेम के प्रति दृष्टिकोण सकारात्मक है। वह जीवन को सकारात्मक आधार देता है। इसी कारण उनका प्रेम वैयक्तिकता की सीमा में नहीं बधां रहता है। वह निजता के घेरे को लांघ कर आगे निकलता है और समाज तथा जनसाधारण का प्रेम बनता है। व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्नमुख उनका यह प्रेम केवल भावना बनकर ही नहीं रहता है, अपितु वह समाज को देखने की एक दृष्टि भी प्रदान करता है। साथ ही समाज के बदलाव की प्रक्रिया में सृजनात्मक हस्तक्षेप भी।आओ बैठे इसी रेत परकविता में कवि का यह भाव स्पष्ट होता है

हे मेरी तुम / सब चलता है लोकतंत्र में / चाकू-जूता-मुक्का-मूसल और बहाना

भूल भटक का भ्रम फैला ये / गलत दिशा में / दौड़ रहा है बुरा जमाना

केदारनाथ मूलतः मानव में आस्था रखने वाले कवि हैं। उनकी कविताओं के केन्द्र में मानव जीवन है। वे मानव, उसके संघर्ष और उसकी सहचरी प्रकृति के सौन्दर्य की कविता रचते हैं।अनहर हरियालीकी भूमिका में वह लिखते हैं – “जीवन के अबाध प्रवाह को व्यंजित करने वाली चेतना ही कविताओं का आधार हो। यही मेरी धारणा है। मेरी कविताएं इसका प्रमाण हैं।

केदारनाथ श्रम एवं सौन्दर्य के उपासक कवि हैं। उनके यहां मानव तथा प्रकृति दोनों सक्रिय है। उनकी कविताओं में उपस्थित मानव तथा प्रकृति के असंख्य सुंदर दृश्य इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि श्रम से रहित सौन्दर्य का उनके लिये कोई महत्व नहीं है (‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’) –

तेज धार का कर्मठ पानी / चट्टानों के ऊपर चढ़कर,

मार रहा है / घूंसे कसकर, / तोड़ रहा है तट चट्टानी

वस्तुतः केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं का वैभव उनकी प्रकृति विषयक कविताओं में भी प्रकट हुआ है। उनकी प्रकृति स्वतंत्र भी है और वह उनके प्रेम तथा उनकी लोक-चेतना या जन-चेतना से जुड़ी हुई भी है। छायावादी प्रकृति की तुलना में वह अत्यधिक मूर्त है, यानी उसमें ऐन्द्रियता बहुत ज्यादा है।फूल नहीं रंग बोलते हैंकी भूमिका में वह लिखते हैं – “मैंने प्रकृति को चित्र के रूप में देखा है।वह एक बित्ते के बराबर हरा ठिगना चना हो, या महुए के पेड़ पर चढ़कर थपाथप मचाने वाली बसंती हवा, या सुनहले भोर की तरह निकलने वाला सूरज और पर खोलकर नाचने वाला सवेरा, सभी अत्यंत मूर्त हैं।

केदारनाथ के प्रकृति चित्रण में मस्ती, उल्लास और जिजीविषा भरी पड़ी दिखाई देती है। वह जब प्रकृति का चित्रण करते हैं तो उसके भीतर कहीं कहीं प्रकृति का मानवीकृत रूप भी होता है। दरअसल इन प्रकृति बिंबों के माध्यम से केदारनाथ एक नये मनुष्य का निर्माण करते हैं। वे उसे मानवीकृत रूप ही प्रदान नहीं करते, मानवीय चेष्टा भी प्रदान करते हैं जिससे उनके यहां प्रकृति बड़ी सजीव दिखाई देती है

एक बीते के बराबर / यह हरा ठिगना चना /

बांधे मुरैठा शीश पर / छोटे गुलाबी फूल का / सजकर खड़ा है

केदारनाथ की कविताएं चूंकि वस्तु जगत से यानी प्रकृति, मनुष्य, जीवन, समाज आदि से अपना गहरा संबंध रखती हैं इसलिये उनमें भी इंद्रियगोचरता है। गुलमेहंदी की भूमिका में वह लिखते हैं – “मेरी कविता तो किसी अलौकिक संसार की कविता है और तो अजूबे व्यक्तित्व की कविता है। यह वस्तु जगत से प्राप्त इंद्रियबोध की कविता है।स्पष्ट है कि केदारनाथ इंद्रियबोध के कवि हैं और उनकी चेतना जनवादी है। यही कारण है कि उनके अधिकतम बिंब उनके अपने जनपदीय परिवेश और मेहनतकश वर्ग से जुड़े हैं। बांदा के किसान से लेकर कानपुर के श्रमिक वर्ग, झाड़ी के छोटे नीले फूल से लेकर रीवा के कांटेदार कुरूप पेड़ों और गस्त क्षेत्र के मस्तमहाजन से लेकर चित्रकूट के यात्री आदि के विभिन्न मौलिक एवं रमणीय बिंब उन्होंने उकेरे हैं।

केदारनाथ में प्रेम और प्रकृति की कविताएं तो हैं ही, लोक और जन की कविताएं भी उन्होंने लिखीं हैं। ऐसी कविताओं की धारायुग की गंगासे आरंभ होती है औरलोक और आलोकसे होती हुई आगे बढ़ती है।बुन्देलखण्ड के आदमी’, ‘चित्रकूट के यात्री’, ‘पैतृक संपत्ति’, ‘चैतू’, ‘रनिया’, ‘किसानों का गाना’, ‘जुताई का गाना’, आदि का संबंध किसानों से तोघन गरजे जन गरजे’, ‘वह जान मारे नहीं मरेगाआदि कविताओं का संबंध मजदूरों से है। वस्तुतः इन्हीं कविताओं के आधार पर केदारनाथ अग्रवाल के काव्य का मूल्यांकन करते हुए कुछ आलोचक यह निष्कर्ष निकालते हैं कि केदारनाथ केवल मार्क्सवादी सिद्धान्तों के कवि हैं क्योंकि उनकी कविता के केन्द्र में केवल शोषितजन हैं। लेकिन उनका यह निष्कर्ष प्रायः एकांगी प्रतीत होता है। क्योंकि केदारनाथ अग्रवाल की प्रेम और सौन्दर्य विषयक कविताओं को छोड़ केवल राजनीतिक कविताओं को आधार बनाकर यह निर्णय लिया गया है। जबकि प्रेम और प्रकृति को आधार बनाकर लिखी गईं उनकी कविताओं में वृहत्तर मानवीय मूल्यों की स्थापना के साथ-साथ एक समग्र जीवन दृष्टि का भी परिचय मिलता है।

संपूर्णता में केदारनाथ अग्रवाल प्रेम, प्रकृति, सौन्दर्य, जीवन और जनमानस के कवि कहे जा सकते हैं। उनकी कविताओं में प्रेम की जैसी पवित्रता, प्रकृति की जैसी छबीली छवि, जनमानस के संघर्ष का जैसा सौन्दर्य तथा जीवन के उत्साह, उमंग एवं विश्वास का जैसा चित्र उपस्थित है वह अपनी अद्वितीय सहजता के कारण विलक्षण है। इन सबका सह-संबंध ही उन्हें प्रगतिशील कवियों के साथ-साथ आधुनिक हिन्दी कविता में एक विशिष्ट पहचान दिलाता है।


सहायक ग्रंथ

· केदारनाथ अग्रवालअजय तिवारी

· सृजनशीलता का संकटनित्यानंद तिवारी

· केदार : व्यक्तित्व और कृतित्वश्री प्रकाश (संपादक)

· रचना का पक्ष, शब्द जहां सक्रिय हैं, – नंद किशोर नवल

· प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवालडा. रामविलास शर्मा


धर्मेन्द्र प्रताप सिंह, पीएच. डी. (हिन्दी) दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली - 07