गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

भुला दिये गये… ‘गांधी’


Blogvani.comप्रायः हम सभी यह मानते और कहते भी हैं कि सत्याग्रहऔर अहिंसाकी अद्भुत ताकत मौजूदा समस्याओं संघर्षों का समाधान खोज निकालने का सबसे कारगर मंत्र है। गांधी सत्यऔर अहिंसाके अपने इन्हीं श्रेष्ठ विचारों के आधार पर समाज को उन्नत करना चाहते थे। उनका कहना था किविकास की सार्थकता सबसे अंत में खड़े व्यक्ति पर पहले ध्यान देने से ही है।लेकिन आज गांधी के इस देश की सच्चाई कुछ और हो चली है! पूंजीवाद की भोगवादी दुनिया में डूबे आज के व्यक्ति और समाज की सच्चाई यह है कि पंक्ति का पहला इंसान ही इतना मोटा है कि आखिरी कृशकाय व्यक्ति दुर्बलतावश दृष्टि से ओझल हो जाता है। इसलिये चिंतन का यह महत्वपूर्ण बिंदु है कि क्या हम उसी दिशा में कदम बढ़ा रहें हैं जिस ओर गांधी ले जाना चाहते थे?

आज हम अपने आस-पास हिंसक घटनाओं के बढ़ते ग्राफ को देख रहे हैं जो लोकतंत्र के साथ सभ्य समाज के सुंदर चेहरे पर बदसूरत निशान के समान उभर रहा है। इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि आज समस्याओं से निपटने के लिये हिंसा का प्रयोग एक हथियारके रूप में हो रहा है। आज कश्मीर से लेकर नक्सलवाद तक की तमाम समस्याओं का समाधान यदि कुछ लोगों को हिंसा से ही सम्भव लगता है, तो लोकतंत्र में पैदा हुआ यह विचार से समाज में बढ़ रही असहिष्णुता का परिचायक है और यह गांधी के उस देश के लिये कतई शुभ संकेत नहीं है जिसमें वह स्वराज के हिमायती थे। ऐसे में आज गांधी की प्रासंगिकता स्वमेव और भी स्पष्ट हो जाती है, विशेषकर जब वह कहा करते थे कि ‘गलत साधनों से सही परिणाम उपलब्ध नहीं हो सकते।'

सामाजिक और मानवीय मूल्यों के विकास से इतर अपराध और स्वार्थ जैसे अनेक लज्जाजनक हालात की ओर बढ़ रहे इस देश की आठ प्रतिशत की वृद्धि दर कुछ कमाल करती नहीं दिखती। विकास की यह तेज रफ्तार अमीरों को तो और अमीर बनाती है लेकिन आमजन से अपने सरोकार भह काटती जाती है। गांधी ने तो सोचा भी नहीं होगा कि उन्होंने जिस राष्ट्र को रोटी, रोजगार और सिर पर साये का वचन दिया था, वह एक दिन लाखों की कीमत पर मुट्ठी भर लोगों के विकास की राह अपना लेगा! ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’, जिससे किसान उपजाऊ भूमि से पलायन को बाध्य हो रहे थे, कभी उनके एजेंडे में नहीं रहे होंगे क्योंकि वह तो इसके उलट गांवों की आत्मनिर्भरता पर जोर दे रहे थे। यदि आज वह होते और सुनते कि हर दिन औसतन दस किसान आत्महत्या कर रहें है तो स्तब्ध रह जाते। आज का किसान तो फसलों को सूखे से बचा पाता है और ही कर्जों से मुक्त हो पाता है। उसके विकास का तो ढांचा ही टूटता जा रहा है। स्थिति यह हो गई है कि सुसभ्य कहलाने वाला समाजनिर्धनताशब्द तक नहीं सुना चाहता है। उसकी तोमालऔरप्लाजाओकी अपनी दुनिया है जिसका निर्माण अब पर्यावरण की कीमत पर भी हो रहा है और जिसकी भारी कीमत भी हमें चुकानी है। इसलिए गांधी से सीख लेते हुए विकास के एक ऐसे स्वाभाविक ढांचे के निर्माण की जरूरत है जिसमें सभी की आवश्यकताएं पूरी हों और व्यक्ति विशेष के लाभ कमाने की मानसिकता पर अंकुश लग सके।

भारत की यह विडंबना है कि गांधी जैसे श्रेष्ठ महापुरूषों की उदगम स्थली होने के बावजूद यहां के लोग गांधी के संदेशों-विचारों का अनुगमन नहीं करना चहते। लोग गांधी के प्रसंगों को तो याद कर लेते हैं लेकिन व्यावहारिक स्तर पर उनके आदर्श और सिद्धान्त इस कृतघ्न राष्ट्र में विलुप्त हो रहें हैं। जबकि अन्य देशों में शांति अहिंसा के इस पुजारी के विचारों को तवज्जो मिल रहा है। गांधी के समय की तुलना में आज का विश्व समुदाय उनसे कुछ ज्यादा प्रभावित हैं। यद्यपि आजादी हमें काफी जद्दोजहद के बाद मिली है और इसे बरकरार रखने की जिम्मेदारीयुवा-वर्गपर है लेकिन यह भी चिंता का विषय है कि आज का युवा अपने आप में सीमित हो रहा है।

कुछ वर्षों पूर्व, गांधी केसत्याग्रह आन्दोलनके शताब्दी समारोह में लगभग अस्सी देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया उससे इतना तो स्पष्ट है कि गांधीवादी विचारधारा के प्रति पूरी दुनिया आज भी कायल है। यूरोप जैसे देशों में गांधी के युवा अनुयायियों की संख्या पहले की तुलना में बढ़ी है। चुंकि भारत शांति, अहिंसा और आध्यात्म की भूमि है। यहाँ बुद्ध, महावीर विवेकानंद, गांधी आदि ऐसे महापुरूष हुये जिन्होंने इसके भविष्य की कल्पना अहिंसा के अग्रदूत के रूप में की। इसलिये आज आवश्यकता है विरासत में मिली शांति, अहिंसा तथा अन्य सकारात्मक मूल्यों की विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाये अन्यथा भविष्य में सामाजिक अराजकता पैदा होगी, मानसिक विकृतियां बढ़ेंगी और नैतिक मूल्यों के पतन में वृद्धि होगी। आज भारत को ही नहीं, पूरे विश्व को सत्य-अहिंसा की राह पर चलने की जरूरत है। गांधी के विचारों संदेशों को जीवन में अपनाने से ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

धर्मेन्द्र प्रताप सिंह, पीएच.डी. (हिन्दी), दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।