बुधवार, 29 सितंबर 2010

लोकतंत्र के पंचायत में कठपुतलीकरण

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वस्तुतः केन्द्र की यूपीए नीत सरकार ने पंचायतों में महिलाओं को पचास फीसदी आरक्षण देकर निश्चय ही महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक और ऐतिहासिक एवं सराहनीय कदम बढाया है। लेकिन उसके इस निर्णय की सार्थकता तब और प्रभावशाली मानी जाएगी जब वह महिलाओं के लिए विधायिका में लंबित पडे तैंतीस फीसदी आरक्षण व्यवस्था को भी लागू करा सके। वस्तुतः भारतीय समाज मूलतः पुरूष प्रधान रहा है जिसमें महिलाएं निर्णय संबंधी अधिकारों से सदैव ही या तो वंचित रहीं हैं या उन्हें बहुत ही सीमित अधिकार दिए गए हैं। यही कारण है कि आज पंचायतों में महिलाओं के प्रधान या सरपंच होने पर भी कार्य-निर्णय संबंधी समस्त शक्तियां प्रधानपति या सरपंचपति अपने हाथों में ही रखता हैं। दलित महिला प्रधानों या सरपंचों की स्थिति तो और भी दयनीय हो जाती है जहां ग्रामसभा के प्रभावी सवर्णों के द्वारा भी उनकी अवसर सुलभता को छीन लिया जाता है। और इस प्रकार से आरक्षण या इस तरह की तमाम सरकारी सुविधाओं के बावजूद भी महिलाएं उनके हाथों की कठपुतली मात्र बनकर रह जाती हैं। जाहिर है कि बुनियादी स्तर पर एक प्रमुख चुनौती महिलाओं के इस कठपुतलीकरण को लेकर है और सरकार को इस दिशा में अपनी प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए। सरकार के इन्हीं सार्थक प्रयासों से लोकतंत्र में इस सामंती व्यवस्था को रोका जा सकेगा और साथ ही दलितों, महिलाओं एवं पंचायतों के स्वर्णिम विकास हेतु एक बेहतर माहौल बनाया जा सकेगा। इसका एक बेहतर एवं सुगम रास्ता विधायिका के स्तर पर भी महिलाओं को आरक्षण देने का हो सकता है। सामाजिक न्याय की दिशा में निश्चय ही यह एक सार्थक निर्णय होगा।


धर्मेन्द्र प्रताप सिंह, पीएच.डी. (हिंदी), दिल्ली विश्वविद्यालय

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

भूमण्डलीकरण और हिंदी भाषा

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शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात दुनिया भर में अनेक एसे परिवर्तन हुए जिनसे प्रत्येक देश की नीतियां प्रभावित हुईं। इन परिवर्तनों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे आर्थिक नीतियों में विश्वव्यापी परिवर्तन जिनसे भारत समेत अनेक देशों की परंपरागत राजनैतिक सामाजिक नीतियों की दशा और दिशा ही बदल गई। एल०पी०जी० की विश्वव्यापी अवधारणा अर्थात उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण ने वैश्विक स्तर पर क्रान्तिकारी परिवर्तन किए। इन परिवर्तनों के प्रभाव केवल देशों की कूटनीति राजनीति और नीतियों पर दिखे वरन उनके सामाजिक क्षेत्र भी अछूते रहे। विश्व व्यापार संघ के निर्देशों के आगे देशों की सीमाएं छोटी पडने लगीं और खुलेपन की नीति अपनानी पडी। ऐसी वैश्विक विवशता और अनिवार्यता के साथ बने रहने के लिए भारत ने भी भूमण्डलीकरण और उदारीकरण वाली नीतियां अपनायी। देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक बडे बाजार के रूप में प्रक्षेपित किया गया और सरकार ने अपने इन बडे बाजार को भुनाने के लिए विदेशी कम्पनियों को आमंत्रित किया।

आज के दौर में किसी भी राष्ट्र के आर्थिक और सांस्कृतिक विकास हेतु भूमण्डलीकरण एक अनिवार्य तत्व है। सभ्यता की यात्रा की गति के साथ-साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए विश्ववाद एक अनिवार्य योग्यता हैइसके बिना विग्यान, अर्थ, शिक्षा और विकास इन सभी क्षेत्रों में समाज मध्यकालीन जडता के रेगिस्तान में कैद हो सकता है। अगर हम दुनिया के साथ चलना चाहते हैं तो राष्ट्र को अपनी सीमाएं खोलनी होंगी क्योंकि भूगोल, संस्कृति और परंपराओं की विविधताओं के जितने अवकाश भूमण्डलीकरण में हैं, राष्ट्रवाद में नहीं हैं। इस रूप में भूमण्डलीकरण मनुष्य की चेतना का विकास भी करता है। मनुष्य के आत्म-विस्तार के लिए वह अस्मिताओं से ऊंचा उठ सके इसके लिए भूमण्डलीकरण आवश्यक है।

इस तरह भूमण्डलीकरण या वैश्वीकरण की अवधारणा पूरे विश्व पर नये बादल की तरह छाने लगी। इन सब परिवर्तनों ने देश की भाषा हिन्दी को भी पर्याप्त प्रभावित किया। हिन्दी जो पहले से ही राष्ट्रभाषा और राजभाषा होने बावजूद अंग्रेजी के नीचे अभिशप्त-सी रही है, भूमण्डलीकरण की चकाचौंध में हिन्दी का एक अन्तर्राष्ट्री बाजार है। उसकी धुरी है पैंतालीस करोड का हिन्दी भाषी क्षेत्र; उसकी परिधि है बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण का हिन्दी समुदाय; और उसका प्रसार है उन्नीसवीं शताब्दी के गिरमिटियों और बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तेजी से बढने वाले अनिवासियों तक। बाजार चाहे जैसा हो, धर्म का, राजनीति का, उपभोक्ता माल का या मनोरंजन सामग्री का वहिन्दी की इस ताकत को अनदेखा नहीं कर सकता। अतः भूमण्डलीकरण में बडे उत्पादक देशों को भारत एक ऐसा बडा सा बाजार दिखता है जहां आगे बढता हुआ मध्यम वर्ग है। भारतीय अर्थव्यवस्था क्रय शक्तिक्षमता के दृष्टिकोण से विश्व की चौथी सबसे बडी अर्थव्यवस्था है और विश्व भर में सर्वाधिक युवा जनसंख्या भारत में ही है, ऐसे युवाओं की बडी जनसंख्या जो अच्छी अंग्रेजी बोलते है और वैश्विक अवसरों को भुनाने के लिए तत्पर है। इस बडे बाजार में हिन्दी को भी अपनी नई भूमिकाएं और चुनौतियां तय करनी पड रही हैं । परन्तु यह भी पर्याप्त चर्चा का विषय हो सकता है कि भूमण्डलीकरण ने क्या हिन्दी का बुरा ही किया है या फिर नए बदलावों और नई भूमिका में अपने नए रुप में हिन्दी में जीवंतता आई है?

धर्मेन्द्र प्रताप सिंह, शोधार्थी (हिंदी विभाग), दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110009


हिन्दी की दासता का दिवस

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हिन्दी दिवस के रूप में 14 सितंबर करीब है। हिन्दी दिवस पर व्यथा और संताप व्यक्त करते हुए पंडित श्री विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं– “काश! 14 सितंबर न आता और हमें हिन्दी दिवस के नाटक देखने-सुनने की घटना झेलनी नहीं पडती।वास्तविकता यही है कि यह हिन्दी दिवस नहीं है। यह तो हिन्दी प्रेमियों को दुख पहुचाने वाला दिवस है। एक पाखण्ड के रूप में हिन्दी की सहायता और व्यापकता की बात की जाती है। लेकिन उसी के साथ प्रायः यह भी जोड दिया जाता है किहिन्दी तो होगी ही, सब्र से काम लीजिए। जो हिन्दी नहीं पढ पा रहे हैं उनको हिन्दी सीखने का समय दीजिए। हिन्दी में कमियां दूर कीजिए और अनेक प्रकार के ग्यानविग्यान की सामग्री तैयार करके हिन्दी को समृद्ध बनाईए।कामकाज में हिन्दी के आनुष्ठानिक प्रयोग के साथ इस बात का भी संकेत दिया जाता है किसाम्राज्यवाद की बात न कीजिए क्योंकि अंग्रेजी की अपरिहार्यता अब एक दृष्टिकोण है जिसे स्वीकार कीजिए। वस्तुतः सालदर-साल यही दोहराव सुनकर बडी कचोट होती है। कारण कि जिन लोगों के जिम्में हिन्दी का सर्वतोन्नमुखी विकास है, वे अपना दोष न स्वीकार करके हिन्दी के माथे सारा दोष मढ देते हैं कि हिन्दी में अभी वो बात कहां!

धर्मेन्द्र प्रताप सिंह, शोधार्थी (हिंदी विभाग), दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली 07


शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

‘मीडिया और स्त्री’

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‘12/24 करोलबाग ZEE TV का एक बेहद लोकप्रिय नायिकावादी धारावाहिक है। इस धारावाहिक के कथानक का आधार करोलबाग में रहने वाला एक मध्यवर्गीय परिवार है जिसेसेठी परिवारके नाम से जाना जाता है। इस परिवार में मुखिया बनने की रस्सा-कस्सी मां मंजू सेठी और पिता राजेन्द्र सेठी के बीच चलती रहती है। इसके अलावा इस परिवार में बहू अनीता एवं बेटे अनुज के साथ तीन बहनें; सिम्मी, नीतू और मिली भी रहती हैं। वस्तुतः यह धारावाहिक एक ऐसे कथानक को लेकर आगे बढता है जिसमें मां और पिता अपने लडकियों की शादी अपने-अपने अनुसार करवाना चाहतें हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके लडकियों की खुशी इसी रिश्ते में है।

वस्तुतः ‘12/24 करोलबागधारावाहिक हिंदी धारावाहिक जगत का अपने तरह का संभवतः पहला नायिका प्रधान धारावाहिक है और अपने इस फार्म में यह धारावाहिक समाज और परिवार में व्याप्त पुरूष वर्चस्ववादी व्यवस्था को कई कोणों से तोडने की कोशिश भी करता है। इसके नायकत्व का दारोमदार एक स्त्री पात्र पर है और जिसका नाम हैसिम्मी सिम्मी अपनी ही रिश्तेदारी के अभी नाम के एक लडके से प्यार करती है। सामान्यतया मध्यवर्गीय परिवारों में यह देखा जाता है कि लडकी के प्यार या उसकी अपनी पसंद का विरोध पिता के द्वारा किया जाता है। इस विरोध के कई कारण होते हैं। कई बार यह विरोध सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर होता है तो कई बार जांत-पांत या धर्म आदि के कारण। लेकिन प्रायः यह देखा गया है कि एक पिता अपनी लडकी की खुशी अपने निर्णयों में ही पाता और देखता है। इस तरह से यह धारावाहिक प्रेम के सामाजिक अंतर्विरोध के विमर्श को हमारे सामने दिखाता है। यहां सिम्मी की मां को जहां यह रिश्ता मंजूर नहीं होता वहीं उसके पिता इस प्यार के और सिम्मी के पक्ष में खडे नजर आते हैं।

यह धारावाहिक अपने कलेवर में एक ऐसे धारावाहिक का रूप धारण करता है जो समाज की उन तमाम व्यवस्थाओं को चुनौती देता है और उन पर प्रहार करता है जिसके मूल में स्रियोचित भावना की अनदेखी की जाती है। इस रूप में यह धारावाहिक स्त्री-विमर्श और स्त्री-चेतना से भी जुडता है। एक ओर प्रेम का सामाजिक अंतर्विरोध दिखाई देता है तो साथ ही दूसरी ओर प्यार की उम्रधर्मी समझ को भी चुनौती मिलती है। सिम्मी के अपने से आठ साल के कम उम्र के लडके से प्यार करने पर एक ओर जहां उसकी मां और रिश्तेदार उसके इस निर्णय को गुनाह बताते हैं और उसके प्यार का विरोध यह कहकर करते है किगुनाह है जी गुनाह! सिम्मी की शादी एक बच्चे से कैसे हो सकती है? आठ साल छोटे लडके के साथ शादी...!’ ; तो वहीं उसके पिता कहते हैं किक्या इन कायरों की वजह से तू पीछे हटेगी? अपने प्यार को ठुकरा देगी? मैं तेरे साथ हूं बेटा, मेरे फैसले पर यकीन कर और बोल।तो सिम्मी का जवाब आता है किपापा! जी मैं आपके साथ हूं। आप जो कहेंगे और जो करेंगे मेरे अच्छे के लिए करेंगे।

लेकिन जिस तरह से खुद सिम्मी की मां और उसके रिश्तेदारों के साथ पूरे सोसायटी वाले उसके इस प्यार का विरोध करते हैं और पत्थर फेकतें हुए घर तक में घुस आतें हैं, उससे समाज का वह रूप बडा ही साफ दिखने लगता है जो स्त्री और पुरूष में गहरा भेद पैदा करता है और पुरूषों से अलग स्त्रियों के लिए अनेक प्रकार के ऐसे कठोर और फालतू किस्म के नियम बनाता है जिसमें बनाने वाले के हित सुरक्षित रहते हैं। माध्यम अध्ययन की स्त्रीवादी दृष्टि से इस धारावाहिक का मूल्यांकन करने पर कई महत्वपूर्ण प्रश्न हमारे बीच खुलतें। मसलन कि क्या केवल लडकी की उम्र ही मायने रखती है? क्या वह उम्र की सीमा से बाहर जाकर अपने तरीके से प्रेम नहीं कर सकती और अपना जीवन नहीं जी सकती है? क्या स्त्री के केवल कमनीय और रमणीय काया का ही महत्व है...?

स्त्रीवादी नायिकावाद में कहानी और तथ्य में स्त्री को हीरो के रूप में देखा जाता है।सिम्मी अपने पिता के लिए एक आदर्श बेटी के तौर पर आती है। वह अपने पिता के लिए हिरोईन है। मीडिया उसे हिरोइक फ्रेम वर्क में प्रस्तुत करता है। वह पुत्र की जगह पुत्री होकर भी अपने पिता की आकांक्षा पूरी करती है यानी वह पुत्री होकर भी पुत्र का रोल निभाती है। वह डबल एम.. करती है, एम.फिल. करती है और डाक्ट्रेट के लिए थिसिस भी लिख रही होती है। लेकिन एक स्त्री की यह सारी उपलब्धियां केवल एक पैसिव रिफरेंस (निष्क्रिय संदर्भ) के तौर पर आती हैं। मीडिया उसकी इस छवि को ना तो महत्व देता है और ना ही भुनाता है क्योंकि मीडिया को भुनाने के लिए स्त्री का कामुक होना बेहद जरूरी है। इसी कारण मीडिया सिम्मी की जो छवि दिखाता है वह एक सहज स्त्री की छवि नहीं होती है। इसलिए सिम्मी एक स्वाभाविक नायिका या स्त्री के रूप में नहीं आती है। स्त्री की स्वाभाविकता या सहजता उसमें नहीं दिखाई देती है और इसी कारण वह एक गढी गई या बनाई गई नायिका बन कर ही रह जाती है। फलतः मीडिया द्वारा स्त्री जागरूकता और स्त्री सशक्तीकरण का जो झूठा शोर मचाया जाता है वह अपने लक्ष्य से बहुत दूर जाकर बाजार के टी.आर.पी. (TRP) और हानि-लाभ के गणित के चक्कर में ही उलझ कर रह जाता है।

‘12/24 करोलबागधारावाहिक में इस तरह के अंतर्विरोध साफ तौर पर दिखाई देते हैं। इस धारावाहिक की मूल उदघोषणा स्त्री को पूर्णतः आत्मनिर्भर बनाने की चेतना से जुडा हुआ हैं जबकि अंततः वह जिस प्रकार की स्त्री की छवि को निर्मित करता है और फिर उसे दिखाता है उसमें स्त्री की स्वाभाविकता का अंश लेश मात्र भी नहीं होता है। वह महज स्टीरियोटाइप की छवि का निर्माण करता है जिसमें स्त्री के स्त्रीत्व का गला घोंट दिया जाता है। यद्यपि इस धारावाहिक में सिम्मी पढी-लिखी, समझदार और धैर्यवान लडकी के रूप में भी आती है। वह उच्च शिक्षा ग्रहण करती है और विश्वविद्यालय में पढती-पढाती है। जब-जब घर में किसी प्रकार की समस्या आती है तो वह उसे भरसक दूर करने की कोशिश भी करती नजर आती है और यहां तक कि वह अपने प्रेमी अभी से पैसे लेकर अपने घर की आर्थिक मदद तक भी करती है। इस तरह से उसके व्यक्तित्व में आर्थिक और अन्य प्रकार से आत्मनिर्भर होने की पूरी संभावना भी है और ये सब उसके व्यक्तित्व के अंतर्निहित गुण हैं। लेकिन उसके चरित्र की इन विशिष्टताओं को मीडिया उभारने की कोशिश करती हुई कहीं पर भी नजर नहीं आती है और न ही इनके आधार पर वह एक स्त्री की छवि के निर्माण में संलग्न दिखाई देती है। वास्तविकता तो यह है कि वह इन सभी स्थितियों को विशुद्ध पुरूषवादी दृष्टि से परोसने की कोशिश करती है।

सिम्मी को एक ऐसे स्त्री चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जो सदैव ही पुरूषों पर निर्भर रहती है। उसके चारों तरफ का जो वातावरण दिखाया जाता है उसमें उसे समझने वाले केवल पुरूष पात्र ही होते हैं। चाहे उसके प्यार को उसके पिता के समर्थन मिलने और उसके प्यार को स्वीकारने के दृश्य हों या घर के आर्थिक सहयोग के लिए उसके प्यार अभी का उसके साथ होने के दृश्य हों। वह पूरी तरह से पुरूषों के बीच होती है और उसके प्रेमी अभी को छोडकर कोई भी उसका बहुत करीबी नहीं बन पाता है। वह और किसी रिश्ते में बहुत सहजता महसूस नहीं करती है। जहां अपनी बहन और भाभी से उसे अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता है वहीं उसकी मां सदैव ही उसे उसकी कमजोरियों का एहसास कराती रहती हैं। उसके पिता के शब्दों में – ‘पहली क्लास से लेकर आज तक आपने सिर्फ उसे उसकी कमजोरियों का एहसास करवाया है, सिर्फ उसकी कमजोरियों का। सिम्मी में ये कमी है, सिम्मी मोटी है, सिम्मी भोली है, सिम्मी स्मार्ट नहीं है। सिम्मी को तो बस कुछ आता ही नहीं है। ये नहीं, वो नहीं, बस।

वस्तुतः मीडिया फुसलाने (पर्सुएशन) की भूमिका निभाती है क्योंकि इसके बिना वह लोकप्रियता नहीं पा सकता है। वह अधिक लोगों तक नहीं पहुंच सकता और अधिक से अधिक लाभ नहीं कमा सकता है। इसीलिए वहपर्सुएशन के जरिए व्यक्ति को उपभोक्ता में रूपांतरित कर देता है। कामुकता उसके लिए प्रेरक तत्व है जिसके जरिए वह उपभोक्ता समाज बनाना चाहता है। कामुकता के जरिए वह उपभोक्ता को फुसलाने की कोशिश करता है, वस्तु खरीदने के लिए प्रेरित करता है क्योंकि अंततः लाभ कमाना ही उसका महत्वपूर्ण लक्ष्य है।

इन दिनों मीडिया के बढते एक्सपोजर ने शारीरिक गठन का नया मुहावरा गढा है। नए शारीरिक गठन का मध्यवर्गीय मंत्र मीडिया रच रहा है।वस्तुतः वह ऐसे इमेजों को बनाता और दिखाता है जिससे साधारण मध्यवर्गीय परिवार प्रभावित हो रहे हैं। मसलन, 12/24 करोलबाग धारावाहिक की प्रमुख पात्र सिम्मी थोडी कम सुंदर दिखने वाली, कम आकर्षक और थोडे मोटे शरीर वाली लडकी के रूप में दिखाई गई है। स्त्री के मोटे होने का मतलब है कि अपनी इच्छाओं पर उसका नियंत्रण नहीं है। दरअसल, स्त्री का मोटा होना उसके असंयमित इच्छाओं का प्रतीक माना जाता है। जबकि मीडिया में स्त्री के संयमित रूप की ही मांग है। आज भारतीय मीडिया में स्त्री की छवि का पैमाना यूरोपीय किस्म का हो गया है जहां स्त्री की छरहरी काया उसके प्रवेश की अनिवार्य शर्त बन गई है । वह पतली होनी चाहिए। उसका शरीर मांसल नहीं होना चाहिए। यानी मीडिया स्त्री के कमनीय और रमणीय रूप को बढावा देकर अपना व्यापार करता है। जबकि इसके ठीक विपरीत स्वभाव की है सिम्मी। वह बहुत साधारण लडकी है। उसकी काया एक कामुक स्त्री की काया जैसी नहीं है और यही उसके व्यक्तित्व की दुसवारी भी है। लेकिन मीडिया का उद्देश्य सिम्मी की यही छवि पूरा करती है क्योंकि मीडिया द्वारा सिम्मी का इस तरह की छवि गढा जाना भी उसकी अपनी रणनीति का ही एक अहम हिस्सा है। वह दर्शकों को बजारोन्नमुख बनाने हेतु सिम्मी की इस छवि को भुनाता है।

टेलीविजन के लिंगीय चरित्र को समझने में वि पन और धारावाहिक कार्यक्रम आदर्श आधार प्रदान करते हैं। स्त्री का वि पनों में रूपायन सिर्फ वस्तुकरण या माल की बिक्री में ही इजाफा नहीं करता है अपितु स्त्रियों के प्रति सामाजिक रवैया भी निर्मित करता है।अमूमन स्त्री के शरीर की छवि का ढेर सारी वस्तुओं की बिक्री के लिए कम्पनियां इस्तेमाल करती हैं। इस धारावाहिक के बीच-बीच में आने वाले वि पन; चाहे वे अयूर या लाइफब्याय के हो, ओलेए या इशिता के सोने एवं हीरे के विग्यापन हों, ‘चित्र में व्यक्ति को जैसा दिखाया जाता है, दर्शक अब वैसा ही बनने लगता है। वे ऐसी स्थिति पैदा करते हैं कि जो व्यक्ति की इमेज विग्यापन में है वही वास्तविक है। वि पन में दर्शाई गई वस्तु हमेशा आकर्षक कामुक इमेज के साथ आती है। कामुक इमेज और प्रेम निवेदन विग्यापन की आम रणनीति के प्रमुख तत्व हैं।

स्पष्ट है कि मीडिया कामुक छवि और प्रेम निवेदन के जरिए स्त्री की छवि को भुनाता है। वि पन में स्त्री के शरीर का जिस तरह से इस्तेमाल होता है उस तरह पुरूष के शरीर का इस्तेमाल नहीं होता है। क्योंकिस्त्री की कामुक इमेज उपभोक्ता को आकर्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इससे वस्तु की बिक्री बढाने में मदद मिलती है। यह वस्तुतः स्त्री का वस्तुकरण है जिसका उपभोग मूल्य से गहरा संबंध है। यह उपभोग मूल्य प्रत्यक्षतः संवेदनात्मक और शारीरिक संबंध की अनुभूति से जुडा है।...यह कामेच्छा का वस्तुकरण भी है। इससे सहज वृत्तियों का दमन भी होता है और काल्पनिक संतुष्टि भी मिलती है। इस तरह समूची मानवीय परिस्थितियों का सेक्सुलाइजेशन कर दिया जाता है।...इससे मांग और सप्लाई बढती है।

आम तौर पर धारावाहिकों में स्त्रियों के कामकाज की अवस्था और उनकी प्रस्तुति के बीच कोई साम्य नहीं होता है। घर में रहते हुए भी स्त्री हर समय सजी रहती हैं। ऐसा लगता है जैसे स्त्री के देह को हमेशा सजा होना ही चाहिए और इसके बाहर जो भी है वह स्त्रियोचित नहीं है, असंयमित है।मसलन, कोई औरत जब आफिस से घर आती हुई दिखाई जाती है तो ऐसा लगता है कि जैसे वह किसी पार्टी से आ रही हो। इस तरह की प्रस्तुति वस्तुतः औरत और उसके श्रम का विद्रूपीकरण है।इस धारावाहिक में भी सिम्मी की बाकी की दोनों बहनों, नीतू और मिली के साथ उसकी भाभी को भी देखा जा सकता है जो हमेशा ही कपडों और गहनों से सजी रहती हैं।

इस प्रकार से आज टेलीविजन पर स्त्रियों से संबंधित धारावाहिकों या अन्य प्रकार के कार्यक्रमों की संख्या भले ही अधिक या पर्याप्त हो गई हो लेकिन आज भी स्त्री से जुडे मूल और गंभीर प्रश्न अनछुए हैं या यों कहें कि गायब हैं। आज भी स्त्री से जुडे सार्थक प्रश्न टेलीविजन पर नहीं दिखाए जा रहे हैं। जाहिर है इसके पीछे मीडिया की अपनी सोची समझी रणनीति है जो स्त्री को उसी रूप में प्रस्तुत करते हैं जिससे पुरूष वर्चस्ववादी व्यवस्था भी ना हिले और स्त्रियों की बात भी की जा सके।वह अपने तरीके से ऐसे मनोरंजन कार्यक्रम या धारावाहिक पेश करता है जिससे औरतों को टेलीविजन के सामने इकट्ठा किया जा सके। स्त्रियों का टीवी से जुडना, टीवी की अंतर्वस्तु में प्रमुखता से आना इस बात का संकेत भी है कि स्त्री की घरेलू और सार्वजनिक जिंदगी में परिवर्तन घट रहें हैं। टेलीविजन का स्त्रियों को घेरना सिर्फ टीवी का घेरना नहीं है अपितु यह पुरूषों द्वारा स्त्री पर थोपा गया नए किस्म का उपनिवेशीकरण है। गुलामी है।टी.आर.पी. (TRP) बढाने के फेर में मीडिया केवल स्त्रियों का ताना-बाना बुनता है।मीडिया हमारे सामाजिक ताने-बाने का सबसे बडा सर्जक है। उसकी इसी सृजनशीलता में अन्य बातों के अलावा स्त्रीविरोधी भावबोध और संस्कार निहित है।इसीलिए ‘12/24 करोलबागधारावाहिक में भी स्त्रियों की वही छवि प्रस्तुत नहीं की गई है जो वास्तव में एक स्त्री की छवि होती है। यहां भी स्त्री की स्टीरियों टाइप छवि को भुनाया जा रहा है जो मीडिया की अपनी निर्मिति है।


धर्मेन्द्र प्रताप सिंह, शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली – 110007