रविवार, 20 जून 2010

बिहार - कोसी त्रासदी

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बिहार के लगभग सोलह जिलों (सुपौला, अररिया, सहरसा, पुर्णिया, कटिहार, भागलपुर आदि) में चारों तरफ़ विनाशलीला, टापू में बदलते गांव और कस्बे शहर। तीस लाख लोगों की बदहाल जिंदगी, कहीं पेडों-टीलों पर तो कहीं स्कूल-धर्मस्थलों में शरण लिये लोगइस भयानक मंज़र के साथ कोशी का प्रवेश हुआ बिहार मेंअगस्त की 18 तारीख को कुशहा (नेपाल) में तटबंध तोडती हुई बिहार-शोकके नाम से कुख्यात कोशी कहर बनकर बिहार में फ़ैल गई

वैसे तो कोशी का कहर बिहार पर कोई नयी बात नहीं, लेकिन इस बार की त्रासदी अपने आप में अलग और भयभीत कर देने वाली हैपिछ्ले लगभग दो सौ वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है कि कोशी ने पश्चिम से पूर्व में जाकर अपना मार्ग चुना है. अब यह एक ऐसे इलाके में बह रही है, जहां के लोगों ने इससे पहले कभी बाढ का रूप देखा नहीं था और करीब तीन दशकों से उन्हें इसकी विभीषिका का कोई डर भी नहीं थालेकिन आज वे नदी की पुरानी और नई धारा के बीच फंस गये हैं

इस अकल्पनीय त्रासदी की सच्चाई यह है कि इसने राज्य के 94163 वर्ग किलोमीटर भू-भाग का 17.98% हिस्सा (16908 वर्ग किलोमीटर) तथा कुल आबादी का 15.81% हिस्से(1,31,26,098लोगों) को अपनी चपेट में लेकर आने वाले चालीस-पचास वर्षों के लिये नागासाकी और हिरोशिमाबना दियाजमीन बंज़र हो जयेगी कोशी की बालू भरी गाद से और जो आबादी बच जायेगी उसे दूसरे जगहों पर शरणार्थी का जीवन बसर करना पडेगा

लेकिन अगर इस पूरी घटना को गंभीरता से देखें तो असल प्रशन यह बनता है कि आखिर इतनी भयावह तबाही आयी कैसे और इसका जिम्मेदार कौन है? तो सहज ही हम पातें हैं कि हमारी खुद की लापरवाही तो है ही लेकिन साथ ही हददर्जे की उस तन्त्र की भी लापरवाही है जो इसका नियामक हैवस्तुत: नदियों के साथ हमारा जो उत्सवधर्मी लगाव था, वह लगभग विस्मॄत होता जा रहा हैहम उनके स्वभाव के अनुकूल आचरण करने के बज़ाय उनसे छेड-खानी करने लगे हैंजल विशेषग्य अनुपम मिश्र कहते हैं किउत्तर बिहार के लोग बाढ से बचने के लिये बाढ के साथ जीने का तरीका जानते थे’। लेकिन अब हमें बस विकास की अंधी दौड दिखती है जिसमें हम बस शामिल हो जाना चहतें हैंयही कारण है कि आज़ादी के बाद कैदकर भीमनगर बराज़ में बहाई जा रही कोशी अनेक कोशिशों के बाद अब आज़ाद हो चुकी है और जनता, प्रशासन, राज्य एंव केन्द्र के साथ-साथ नेपाल सरकार से भी मनों बदला चुकाने के लिये तबाही में लगी हुयी है

स्पष्टत: यह बाढ बरसात का अधिक नहीं बल्कि बांध टूटने का नतीजा हैयानी यह प्राकॄतिक आपदा कम सरकारी लापरवाही के चलते आयी विपत्ति ज़्यादा हैयह सच है कि कोशी परियोजना की देख-रेख और रख-रखाव में खूब लापरवाही बरती गयी जिससे पूरी परियोजना कुप्रबंधन की भेंट चढ गयीबाढ के बाद की स्थिती यह बनी कि राष्ट्रिय आपदा घोषित होने के बाद भी राहत के नाम पर जो किया गया वह ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहा है सरकारी लापरवाही का आलम यह है कि पानी बढने की पुर्व सूचना तक जनता को किसी ने नहीं दी बांध 18 अगस्त को टूटा, किंतु सरकारें, आकाशवाणी, दूरदर्शन के साथ निजी चैनलों ने भी इसे 24 अगस्त तक कोई महत्त्व नहीं दियासूचना अभाव के कारण समय रहते लोग सुरक्षित स्थानों पर नहीं भाग सकेबाढ में बहना ही आखिरी विकल्प बना

और यही नहीं, फ़णीश्वर नाथरेणूकेमैला आंचलमें आज़ादी के 61 साल बाद भी ज़ारी भीषण गरीबी से प्रलयंकारी बाढ की मार और भी दुखदायी बन गयी क्योंकि असमान आर्थिक विकास के दॄश्य बाढग्रस्त क्षेत्रों में भी देखे जा सकते हैंवस्तुत: बाढग्रस्त इलाकों में पक्के मकान कम झोपडियां कच्चे मकान ही अधिक हैंकल्पना कीजिए कि अगर सरकारें तनिक भी चेती होतीं और आज़ादी के बाद आम संपन्न्ता ही आयी होती और उन लोगों के अधिक्तर मकान पक्के होते और कुछ मकान दो मंजिला हो चुके होते तो कुछ ही समय के लिये ही सही, लेकिन बाढ की पीडा झेलने में उन्हें कुछ तो सुविधा होती

इस भारी विपत्ति में जहां मोबाइल फोन ने रामबाण का काम किया वहीं संचार-क्रांति का इतना लाभ शायद ही इससे पहले कभी एक जगह देखा गया होएक-दो अपवादों को छोडकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया का प्रयास सराहनीय रहा, लेकिन इतने भर से काम चलने वाला नहींवास्तव में हम यदि इस तरह की भयंकर तबाही को रोकना चाहतें हैं तो कुछ विशेष करना होगासर्वप्रथम भारत-नेपाल-बांग्लादेश को मिलकर कुछ ठोस कदम उठाने होंगे और वह भी नदियों की धारा (स्वभाव) के अनुकूलसाथ ही कुर्सी के आगे कोशी को लगभग भूल चुके राजनेताओं को भी अपने नज़रियें में बदलाव लाना होगाअगर स्थिती नहीं बदली तो उत्तर-बिहार में भयंकर बाढ का प्रशन निरुत्तर बनता जायेगा और पीडित जनता के पास कोशी मां की पूजा के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा

(कोसी की भयानक त्रासदी के समय लिखा गया)

धर्मेन्द्र प्रताप सिंह

एम.फिल. (हिंदी)

दिल्ली विश्वविद्यालय

दिल्ली - 110007