शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

संघर्ष का अकेला नायक – ‘अलेक्सांद्र सोल्झनित्सिन’


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संपूर्ण मनुष्यता के स्वरुप बदल डालने का स्वप्न देखने वाली लेकिन उससे कहीं ज्यादा जटिल यथार्थों से मुठभेड में कई नये विद्रूपों की शिकार होने वाली ‘रुसी क्रांति’ के आस-पास (11 दिसंबर 1918 को) किज्लोवोस्क (RSFSR), अब रूस, में पैदा हुये - अलेक्सांद्र सोल्झनित्सिन। रुसी क्रांति उनकी आंखों के सामने परवान चढी, सुहागवती हुई, बूढी हुई और एक दिन मर भी गयी। सोल्झनित्सिन ताउम्र इस क्रांति से पैदा हुई शासन व्यवस्था के विरुद्ध रहे। साम्यवादी रुस ने उन्हें इसका दंड भी दिया।

सोल्झनित्सिन का सारा जीवन और लेखन एक व्यवस्था के भीतर एक ईमानदार मनुष्य के अकेले संघर्ष की कहानी है। जन्म से 6 महीने पहले ही उनके पिता ‘इसाकी सोल्झनित्सिन’ चल बसे। पढी-लिखी मां Taissia Shchberbak ने इन्हें कायदे से पाला। लेकिन यह वह दौर था जब सेवियत व्यवस्था पुराने अन्यायों का हिसाब चुकाने में लगी थी। सोल्झनित्सिन की पारिवारिक संपत्ति सामूहिक फार्म का हिस्सा हो चुकी थी और उनकी मां को जीवन-यापन के लिये संघर्ष करना पडा जिसमें यह सावधानी भी शामिल थी कि वह किसी को यह ना बतायें कि उनके पति कभी जार की सेना में रहें। जेल में रहते उन्हें पहली पत्नी की मृत्यु का समचार मिला। पहली किताब तब छ्पी जब सोवियत व्यवस्था ने उस पर मुहर लगाई। इसके पहले वह सब-कुछ लिखते रहे और दूसरों से छुपाते रहे। दरअसल, संघर्षों के साथ सोल्झनित्सिन की लुका-छिपी चलती रही।

कम्युनिस्ट के तौर पर अपना लेखन शुरू करने वाले सोल्झनित्सिन वस्तुतः महान रूसी उपन्यासकारों और लेखकों - टाल्स्टाय, चेखव, गोर्की, दोस्तोएव्स्की, तुर्गनेव, गोगोल और शोलोखोव की ही परंपरा की आखिरी कडी की तरह थे। उनके नैतिक साहस को वह स्तालिनवाद मंजूर नहीं था जो सर्वहारा की क्रांति के नाम पर एक नये तरह की अमानुषिकता को थोप रहा था। द्वितीय विश्वयुद्ध में प्राग के मोर्चे पर मेजर के रूप में सोवियत सेना की अगुवाई कर रहे इस लेखक ने स्तालिन की नीतियों के खिलाफ एक पत्र अपने एक मित्र को लिखकर सोवियत यंत्रणा का भंडाफोड किया। युद्ध और संदेह से घिरी उस दुनिया में जासूस हर तरफ थे। पत्र के साथ सोल्झनित्सिन भी पकडे गये। पहले तो उन्हें यातना शिविर में डाल दिया गया और बाद में देश निकाला देकर तत्कालीन सोवियत सरकार ने यह बता दिया कि रूस के इस्पाती पर्दे के पार देखने की जो भी कोशिश करेगा उसका हश्र इससे भी बुरा होगा। लेकिन सोवियत सरकार के इस क्रूरतापूर्वक कार्यवाही से सोल्झनित्सिन का लेखकीय आत्मबल हार नहीं मानने वाला था, वह बढता ही गया। 1970 का नोबेल पुरस्कार सोल्झनित्सिन को जिस रचना के लिये मिला और जिसने उन्हें वैश्विक लेखक के रूप में प्रतिष्ठा दिलायी, वह है - दि गुलाग आर्किपेलोगो’ (1973-78) और यह इसी दौर के अनुभवों में गुंथी हुई एक बेहद महत्वपूर्ण रचना है। इसमें उन्होनें सोवियत संघ के मजदूर शिविरों और तंबुओं में तडपते कैदियों की भयावह जिंदगी का मार्मिक और करूण संघर्ष पैदा करके तत्कालीन सरकार की क्रूरता का खुलासा किया है। इसके पूर्व ‘वन डे इन द लाइफ आफ इवान देनिसोविच’ (1962), ‘फस्ट सरकल’ (1968), ’कैंसर वार्ड’ (1968) जैसे उपन्यासों के साथ ही ‘द लव - गर्ल एंड इनोसेंट’ (1969) नाटक तथा ‘रसियन नाइट्स’ (1974) कविता संग्रह से सोल्झनित्सिन को देश और दुनिया में एक नई शोहरत मिल चुकी थी। लेकिन ‘दि गुलाग आर्किपेलोगो’ के तीनों खण्डों (1973-78) के आने से उनका यश दास्तोवस्की के बाद के सबसे प्रतिष्ठित उपन्यासकार के रूप में सारी दुनिया में फैल गया।

निर्वासन के साथ सोल्झनित्सिन एक नई राजनीति के शिकार होते दिखाई पडते हैं। पहले कुछ वक्त जर्मनी और स्वीट्जरलैंड में गुजारने के बाद अमेरिका पहुंचे। सोवियत संघ के खिलाफ चलाये जा रहे अभियान में एक लाभप्रद प्यादा हो सकने के कारण पश्चिम की तथाकथित ‘आजाद’ दुनिया ने उन्हें हाथों-हाथ लिया। लेकिन अंतत: उन्हें सोवियत तंत्र और साम्यवादी विचारधारा में निहित जकडन का प्रतीक पुरुष बनाकर छोड दिया। अमेरिका जाकर सोल्झनित्सिन को एक नए तरह के संकट ने घेरा। पश्चिमी समाज और जीवन मूल्यों में आ रही गिरावट उनसे अलक्षित न रही और उन्होंने इसकी भी आलोचना करनी आरम्भ कर दी। शीत-युद्ध के बाद तो पश्चिमी बुद्धिजीवियों और सरकारों ने भी उनकी अनदेखी शुरू की। उनका थोडा-बहुत जो भी प्रतीकात्मक मूल्य पश्चिमी राजनीतिक हितों के बाकी रह गया था, वह तब गायब हो गया जब 1994 में सोल्झनित्सिन की स्वदेश वापसी हुई।

सोल्झनित्सिन से पश्चिम के संबंध काफी पहले ही ठंडे पडने शुरू हो गये थे जब उन्होनें 1978 में हार्वड विश्वविद्यालय में एक व्याख्यान के दौरान पश्चिम की विश्व-दृष्टि और इसके कई जीवन मूल्यों पर आक्रमण किये। उन्होनें पश्चिम पर ‘श्रेष्ठता के भाव से अंधा’ होने और शेष दुनिया को अपनी ही छवि में ढालने का आरोप लगाया। समकालीन पश्चिमी जगत के ‘स्वतंत्रता और लोकतंत्र’ की कडी आलोचना के साथ उनके श्रेष्ठता के दावे पर जबर्दस्त आक्रमण करते हुए कहा की कम से कम वह अपने देशवासियों को समाज के पश्चिमी माडल को अपनाने की सिफारिश नहीं करेंगे - अगर कोई मुझ से पुछे, जैसा कि पश्चिम आज है, उसे मैं अपने देश के लिये माडल के रूप में सिफारिश करना चहुंगा तो साफ बात यह है कि मेरा उत्तर नहीं में होगा।”

सोवियत रूस में मिखाइल गोर्वाचोव के नेतृत्व में एक ‘प्रतिक्रांति’ आई जिसे ‘पेरेस्त्रोइका’ के रूप में जाना जाता हैं। ‘पेरेस्त्रोइका’ ने इनके साहित्य से प्रतिबंध हटा कर इन्हें रूस में लौटने का न्योता दिया और इस तरह से सोल्झनित्सिन लगभग 20 साल बाद अपने देश लौट सके जब रूस आधिकारिक तौर पर साम्यवादी से मुक्ति पा चुका था। स्वदेश वापसी पर रूसी जनता ने उनका बहुत स्वागत किया। राजनीतिक और आर्थिक तौर पर हिल चुके रूस ने उनमें एक नैतिक सहारा देखा। प्रसिद्ध आधुनिक कवि ‘येवोनी येव्तुशेन्को’ ने उम्मीद जताई कि सोल्झनित्सिन की वापसी से रूस की फ़िजा बदलेगी। उसी रूस में एक ऐसा सर्वे भी आया कि 45 फीसदी लोग सोल्झनित्सिन को राष्ट्रपति के रूप में देखना चाहते हैं।

लेकिन, एक लेखक होने की, अपनी जडों और भाषा से जुडे रहने की त्रासदी सोल्झनित्सिन को इस आजाद अराजक रूस में भी झेलनी पडी। अमेरिका से लौटकर जब उन्होंने देश के पूर्व तटवर्ती क्षेत्र का दौरा किया तो वह इस सुधारवादी ‘पेरेस्त्रोइका’ से क्षुब्ध हो उठे और साथ ही तत्कालीन राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन की नई पूंजीवादी व्यवस्था से भी उनका मोहभंग हुआ। उन्होंने पाया कि वह जिस रूस में लौटे हैं वह तो एक ‘नया रूस’ है जो एक ‘नयी रूसी’ बोलता है। इस नये रूस ने भी उन्हें अचरज के साथ देखा कि उनका लेखक जैसे अपने वक्त से कितना पीछे छूटा हुआ है। उनकी वापसी पर जहां पिछ्ली पीढी उन्हें रूस को बदनाम करने का दोषी मानती रही तो नई पीढी महान रूसी परंपरा का अवशेष, जिसकी जगह म्युजियम में है, और इस प्रकार, धीरे-धीरे सोल्झनित्सिन इस नए रूस में भी अकेले पडते गये।

लेकिन सोल्झनित्सिन व्यवस्थाओं और विचारधाराओं के भीतर बन जाने वाली घुटन और यातना के विरूद्ध एक मुखर और स्वतंत्र आवाज का नाम है - एक ऐसी आवाज, जिसने सोवियत व्यवस्था की यातना भी देखी और पूंजीवादी लोकतंत्र का छ्ल भी। इससे बडी बात यह कि अंतत: सारी व्यवस्थाओं के पार आधुनिकता को स्तब्ध करने वाली पतनशीलता के विरूद्ध वह हमेशा खडे रहे - पुराने रूस में भी, अमेरिका में भी और नए रूस में भी। रूसी शासन ने उन्हें गहरी कटुता दी। इस दौर के संपूर्ण स्थिती पर केन्द्रित उनकी कॄति - द रेड व्हील’ में इस पूरी व्यवस्था की एक तीखी आलोचना मिलती है। लेकिन एक ‘रूस’ उनके भीतर अपनी पूरी परंपराओं के साथ बचा रहा। इसीलिये उनमें टालस्टाय का आध्यात्मिक बडप्पन, दोस्तोएव्स्की की लेखकीय तीव्रता एवं चेखव की संवेदना का अदभुत और महान संगम तो है ही लेकिन सबसे ज्यादा वह साहस, जिसके सहारे वह अकेले खडे और लडे। रूसी क्रांति बहुत बडी थी लेकिन अलेक्सांद्र सोल्झनित्सिन का व्यक्तित्व भी उतना ही बडा साबित हुआ।

आश्चर्य मिश्रित निराशा की बात यह है कि ‘दमन का मुकाबला अमन से करने वाला यह संत’ जब 03 अगस्त 2008 (मास्को) को दुनिया से हमेशा के लिये अलविदा हुआ तो बहुतों को जहां उनकी मौत की खबर देर से मिली वहीं कईयों को तो यह भी पता नहीं था कि वह जीवित हैं! (साभार- सम्यांतर, जनसत्ता, दैनिक भास्कर)

धर्मेन्द्र प्रताप सिंह

एम.फिल.(हिंदी)

दिल्ली विश्वविद्यालय

दिल्ली-110007