बुधवार, 29 सितंबर 2010

लोकतंत्र के पंचायत में कठपुतलीकरण

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वस्तुतः केन्द्र की यूपीए नीत सरकार ने पंचायतों में महिलाओं को पचास फीसदी आरक्षण देकर निश्चय ही महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक और ऐतिहासिक एवं सराहनीय कदम बढाया है। लेकिन उसके इस निर्णय की सार्थकता तब और प्रभावशाली मानी जाएगी जब वह महिलाओं के लिए विधायिका में लंबित पडे तैंतीस फीसदी आरक्षण व्यवस्था को भी लागू करा सके। वस्तुतः भारतीय समाज मूलतः पुरूष प्रधान रहा है जिसमें महिलाएं निर्णय संबंधी अधिकारों से सदैव ही या तो वंचित रहीं हैं या उन्हें बहुत ही सीमित अधिकार दिए गए हैं। यही कारण है कि आज पंचायतों में महिलाओं के प्रधान या सरपंच होने पर भी कार्य-निर्णय संबंधी समस्त शक्तियां प्रधानपति या सरपंचपति अपने हाथों में ही रखता हैं। दलित महिला प्रधानों या सरपंचों की स्थिति तो और भी दयनीय हो जाती है जहां ग्रामसभा के प्रभावी सवर्णों के द्वारा भी उनकी अवसर सुलभता को छीन लिया जाता है। और इस प्रकार से आरक्षण या इस तरह की तमाम सरकारी सुविधाओं के बावजूद भी महिलाएं उनके हाथों की कठपुतली मात्र बनकर रह जाती हैं। जाहिर है कि बुनियादी स्तर पर एक प्रमुख चुनौती महिलाओं के इस कठपुतलीकरण को लेकर है और सरकार को इस दिशा में अपनी प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए। सरकार के इन्हीं सार्थक प्रयासों से लोकतंत्र में इस सामंती व्यवस्था को रोका जा सकेगा और साथ ही दलितों, महिलाओं एवं पंचायतों के स्वर्णिम विकास हेतु एक बेहतर माहौल बनाया जा सकेगा। इसका एक बेहतर एवं सुगम रास्ता विधायिका के स्तर पर भी महिलाओं को आरक्षण देने का हो सकता है। सामाजिक न्याय की दिशा में निश्चय ही यह एक सार्थक निर्णय होगा।


धर्मेन्द्र प्रताप सिंह, पीएच.डी. (हिंदी), दिल्ली विश्वविद्यालय