शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात दुनिया भर में अनेक एसे परिवर्तन हुए जिनसे प्रत्येक देश की नीतियां प्रभावित हुईं। इन परिवर्तनों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे आर्थिक नीतियों में विश्वव्यापी परिवर्तन जिनसे भारत समेत अनेक देशों की परंपरागत राजनैतिक सामाजिक नीतियों की दशा और दिशा ही बदल गई। एल०पी०जी० की विश्वव्यापी अवधारणा अर्थात उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण ने वैश्विक स्तर पर क्रान्तिकारी परिवर्तन किए। इन परिवर्तनों के प्रभाव न केवल देशों की कूटनीतिक राजनीति और नीतियों पर दिखे वरन उनके सामाजिक क्षेत्र भी अछूते न रहे। विश्व व्यापार संघ के निर्देशों के आगे देशों की सीमाएं छोटी पडने लगीं और खुलेपन की नीति अपनानी पडी। ऐसी वैश्विक विवशता और अनिवार्यता के साथ बने रहने के लिए भारत ने भी भूमण्डलीकरण और उदारीकरण वाली नीतियां अपनायी। देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक बडे बाजार के रूप में प्रक्षेपित किया गया और सरकार ने अपने इन बडे बाजार को भुनाने के लिए विदेशी कम्पनियों को आमंत्रित किया।
आज के दौर में किसी भी राष्ट्र के आर्थिक और सांस्कृतिक विकास हेतु भूमण्डलीकरण एक अनिवार्य तत्व है। सभ्यता की यात्रा की गति के साथ-साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए विश्ववाद एक अनिवार्य योग्यता है। इसके बिना विग्यान, अर्थ, शिक्षा और विकास इन सभी क्षेत्रों में समाज मध्यकालीन जडता के रेगिस्तान में कैद हो सकता है। अगर हम दुनिया के साथ चलना चाहते हैं तो राष्ट्र को अपनी सीमाएं खोलनी होंगी क्योंकि भूगोल, संस्कृति और परंपराओं की विविधताओं के जितने अवकाश भूमण्डलीकरण में हैं, राष्ट्रवाद में नहीं हैं। इस रूप में भूमण्डलीकरण मनुष्य की चेतना का विकास भी करता है। मनुष्य के आत्म-विस्तार के लिए वह अस्मिताओं से ऊंचा उठ सके इसके लिए भूमण्डलीकरण आवश्यक है।
इस तरह भूमण्डलीकरण या वैश्वीकरण की अवधारणा पूरे विश्व पर नये बादल की तरह छाने लगी। इन सब परिवर्तनों ने देश की भाषा हिन्दी को भी पर्याप्त प्रभावित किया। हिन्दी जो पहले से ही राष्ट्रभाषा और राजभाषा होने बावजूद अंग्रेजी के नीचे अभिशप्त-सी रही है, भूमण्डलीकरण की चकाचौंध में हिन्दी का एक अन्तर्राष्ट्रीय बाजार है। उसकी धुरी है पैंतालीस करोड का हिन्दी भाषी क्षेत्र; उसकी परिधि है बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण का हिन्दी समुदाय; और उसका प्रसार है उन्नीसवीं शताब्दी के गिरमिटियों और बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तेजी से बढने वाले अनिवासियों तक। बाजार चाहे जैसा हो, धर्म का, राजनीति का, उपभोक्ता माल का या मनोरंजन सामग्री का वह हिन्दी की इस ताकत को अनदेखा नहीं कर सकता। अतः भूमण्डलीकरण में बडे उत्पादक देशों को भारत एक ऐसा बडा सा बाजार दिखता है जहां आगे बढता हुआ मध्यम वर्ग है। भारतीय अर्थव्यवस्था क्रय शक्तिक्षमता के दृष्टिकोण से विश्व की चौथी सबसे बडी अर्थव्यवस्था है और विश्व भर में सर्वाधिक युवा जनसंख्या भारत में ही है, ऐसे युवाओं की बडी जनसंख्या जो अच्छी अंग्रेजी बोलते है और वैश्विक अवसरों को भुनाने के लिए तत्पर है। इस बडे बाजार में हिन्दी को भी अपनी नई भूमिकाएं और चुनौतियां तय करनी पड रही हैं । परन्तु यह भी पर्याप्त चर्चा का विषय हो सकता है कि भूमण्डलीकरण ने क्या हिन्दी का बुरा ही किया है या फिर नए बदलावों और नई भूमिका में अपने नए रुप में हिन्दी में जीवंतता आई है?
धर्मेन्द्र प्रताप सिंह, शोधार्थी (हिंदी विभाग), दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110009
Good work.....I think Hindi is loosing its importance due to the lack of real research in developing new terminology to keep pace with globalization....
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