हिन्दी दिवस के रूप में 14 सितंबर करीब है। हिन्दी दिवस पर व्यथा और संताप व्यक्त करते हुए पंडित श्री विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं– “काश! 14 सितंबर न आता और हमें हिन्दी दिवस के नाटक देखने-सुनने की घटना झेलनी नहीं पडती।” वास्तविकता यही है कि यह हिन्दी दिवस नहीं है। यह तो हिन्दी प्रेमियों को दुख पहुचाने वाला दिवस है। एक पाखण्ड के रूप में हिन्दी की सहायता और व्यापकता की बात की जाती है। लेकिन उसी के साथ प्रायः यह भी जोड दिया जाता है कि ‘हिन्दी तो होगी ही, सब्र से काम लीजिए। जो हिन्दी नहीं पढ पा रहे हैं उनको हिन्दी सीखने का समय दीजिए। हिन्दी में कमियां दूर कीजिए और अनेक प्रकार के ग्यान–विग्यान की सामग्री तैयार करके हिन्दी को समृद्ध बनाईए।’ कामकाज में हिन्दी के आनुष्ठानिक प्रयोग के साथ इस बात का भी संकेत दिया जाता है कि ‘साम्राज्यवाद की बात न कीजिए क्योंकि अंग्रेजी की अपरिहार्यता अब एक दृष्टिकोण है जिसे स्वीकार कीजिए। वस्तुतः साल–दर-साल यही दोहराव सुनकर बडी कचोट होती है। कारण कि जिन लोगों के जिम्में हिन्दी का सर्वतोन्नमुखी विकास है, वे अपना दोष न स्वीकार करके हिन्दी के माथे सारा दोष मढ देते हैं कि हिन्दी में अभी वो बात कहां!
धर्मेन्द्र प्रताप सिंह, शोधार्थी (हिंदी विभाग), दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली 07
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