‘महोदय’ आसाराम को कुछ लोग या कहें कि कम से कम उनके भक्त या चेले उन्हें आसाराम
‘बापू’ के नाम से न केवल पूजते हैं बल्कि अपना आदर्श मानते हुए उन्हें अपने
आराध्य के रूप में भी स्वीकार करते हैं. आसाराम के प्रति उनके भक्तों के इस संबोधन
में ‘राम’ और ‘बापू’ शब्द सहज ही हमें मर्यादा पुरोषोत्तम ‘श्री
राम’ और अहिंसा के पुजारी ‘महात्मा गांधी’ जैसे श्रेष्ठ महापुरुषों की याद
दिलाते हैं. ‘राम’ और ‘गांधी’ के तप एवं त्याग ने एक ओर जहां हमारे समाज में
नैतिकता एवं पवित्रता का गहरा मानदंड स्थापित किया तो वहीं दूसरी ओर उनके विचार आज
भी हमारे लिए श्रेष्ठ मार्गदर्शन का कार्य करते रहे हैं. लेकिन अपने नाम में इन्हीं
‘राम’ और ‘बापू’, दोनों महापुरुषों को धारण करने वाले आसाराम के संदर्भ में हाल ही
में समाचार माध्यमों के द्वारा से जो बातें देखने, सुनने और पढ़ने में आयीं वे निश्चय
ही किसी भी सभ्य समाज के लिए बेहद निराशाजनक और चिंताजनक कही जा सकती हैं! इस लेख के
द्वारा मैं आसाराम को हाल के इस विवाद का न तो दोषी सिद्ध करना चाहता हूँ, क्योंकि
यह जिम्मेदारी तो अदालतों की है, और न ही मैं उनके पक्ष में कोई नायाब तर्क गढ़ने
की कोशिश कर रहा हूँ. लेकिन इस विवाद के बहाने आसाराम या कहें कि उनकी ‘महिमा’ के
संदर्भ में अनेक ऐसे तथ्य खुलकर हमारे सामने आ रहे हैं जिससे हमें बहुत कुछ सोचने
पर मजबूर होना पड़ रहा है.
वैसे तो भारत या भारत के बाहर भी अनेक संत और महात्मा हैं और
रहे भी हैं जो अपने-अपने कुछ विशिष्ट ‘कार्यों’ की वजहों से जाने जाते रहे हैं लेकिन
इस सूची में जैसे ही हमारी दृष्टि आसाराम पर पड़ती है तो एक बात बहुत ही स्पष्ट हो
जाती है कि आसाराम का विवादों से बहुत ही करीब का नाता रहा है और जाहिर है कि ऐसा
उनके संत या महात्मा की भूमिका में किए गए कुछ नेक कार्यों की वजह से नहीं बल्कि
एक पाखंडी और ढोंगी संत-महात्मा के रूप में उनके द्वारा किए गए अनके विवादित कार्यों
की वजह से ही रहा है. अनेक साक्षात्कार में आसाराम को यह बोलते हुए तो सुना ही है
कि ‘मैं सन्यासी नहीं हूँ’ लेकिन ऐसा बताकर आखिर आसाराम साबित क्या करना
चाहते हैं यह आज भी मेरी समझ से बाहर की बात रही है लेकिन सच के तौर पर यह तो लगभग
स्पष्ट है ही कि आसाराम ने अपना जैसा ताम-झाम तैयार किया हुआ है और जिस तरह से वे
उपदेश और प्रवचन देते-फिरते हैं और आश्रमों में भव्य भजन-कीर्तन का आयोजन भी करते
रहते हैं, उससे वे खुद को संत-महात्मा के रूप में प्रतिष्ठित ही करते हैं और उनके
भक्तगणों को ऐसा मानने और कहने में कोई गुरेज नहीं बल्कि गर्व की अनुभूति भी होती
रही है. लेकिन यहीं से एक समस्या आरंभ होती है जो ‘आसाराम’ (आशाराम) को ‘निराशाराम’
में तब्दील कर देती है!
आसाराम ‘संत’ और ‘महात्मा’
जैसे विशेषणों को तो बहुत
ही सहज रूप में धारण कर लेते हैं लेकिन अंततः वे यह क्यों भूल जाते हैं कि ऐसे
विशेषणों का कुछ विशेष अर्थ भी होता है! ‘संत’ और ‘महात्मा’ समाज को दिशा देने का
कार्य करते हैं, राष्ट्र और समाज के भले के लिए उनके पास व्यापक दृष्टि होती है और
वह लोगों को सद्जीवन की ओर जाने के लिए प्रोत्साहित भी करती है. लेकिन आसाराम का
पूरा का पूरा कार्य-व्यापार इन आदर्शों से नितांत भिन्न रहा है. कभी तो वे इसलिए
चर्चा में आते हैं कि उनके आश्रम से कोई लड़का गायब हो जाता है तो कभी इस खातिर कि
उनके आश्रमों के बाहर कंकाल बरामत होता है. कभी तो पानी की बर्बादी पर उनकी सामूहिक
आलोचना होती है तो कभी उनकी भाषा लोगों में रोष पैदा करती है. आखिरकार आसाराम ने किस
प्रकार के ‘संतत्व’ और ‘महात्म’ को धारण किया हुआ है!
समाचार माध्यमों के शोधों से यह ज्ञात होता है कि आसाराम
भारत समेत भारत के बाहर के भी कुछ देशों में रीयल इस्टेट आदि का व्यापार करते हैं
और करोंड़ों-अरबों में खेलते-खाते हुए इनके नारे-वारे करते हैं. लेकिन वह व्यक्ति
जो इस तरह के महान विशेषणों को धारण कर रहा हो उसे कोइ हक़ नहीं बनता है कि वह अकूत
दौलत कमाने के व्यापरी कुचक्र में फंसे और ऐशों आराम की जिन्दगी या कहिये कि दौलत
और व्यसन के चकाचौंध में डूबी भोगवादी जिंदगी जिए. कारण कि जैसे ही आसाराम ने खुद
को ‘संत-महात्मा’ कहा और माना तो वे सारे सामाजिक प्रतिबंध पैमाने के रूप में स्वतः
ही उन पर लागू हो जाते हैं जो समाज ने विकास की एक लंबी प्रक्रिया के दौरान बनाएं
और निर्धारित किए हैं और जो हमारी सनातन परंपरा से ही चला आ रहा है. वस्तुतः आप
खुद के लिए जैसी भूमिका का चुनाव करते हैं, आपको आचरण भी वैसा ही करना होता है. लेकिन
आसाराम ने जो भूमिका अपने लिए चुनी है, उनका आचरण और व्यवहार कतई उसके अनुकूल नहीं रहा है, पहले भी
और आज भी. खुद के खिलाफ साजिश और षडयंत्र का उनका बेतुका तर्क बिना आधार का प्रतीत
होता है क्योंकि किसी के खिलाफ एक बार साजिश और षडयंत्र किया जा सकता है, दो बार
किया जा सकता है लेकिन ऐसा बार-बार हो तो खुद को निर्दोष साबित करने का उनका तर्क
औंधें मुह गिर जाता है. बार-बार उनका और उनके आश्रम के बारे मे इस तरह की घटनाएं
घटना निश्चय ही उनके खिलाफ एक संदेह का माहौल पैदा करता है.
आसाराम संत और महात्मा का अपना नकाब उतारने में किससे डरते
हैं यह तो मुझे नहीं पता लेकिन अगर उन्हें व्यापार करते हुए लाभ ही कामना है तो
कारपोरेट जगत के वस्त्र धारण कर पूर्ण रूप से व्यापारी बनने में ही अब उनकी भलाई
है. स्वेत वस्त्र धारण कर उपदेश और प्रवचन देकर ऐसे प्रपंच रचने की आखिर उन्हें
जरूरत ही क्या है? नकाब उतार फेंकने के उनके साहसिक निर्णय से भारत जैसे तरुण
होते हुए देश का कम से कम इतना तो भला होगा ही कि इस देश से अब कुछ और बच्चे
गायब नहीं होंगे, कुछ बहनों पर अत्याचार और अनाचार नहीं होगा और सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण कि पानी की फिजूलखर्ची बंद होगी और प्यास बुझाने के लिए कुछ पानी तो
बचेगा...!
धर्मेन्द्र
प्रताप सिंह
यु.टी.ए.
(हिंदी विभाग), दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली – 110007
(kalhansdharmendra.blogspot.com)
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