धर्मेन्द्र – अभी तक के जीवन में आपने 85 बसंत देखें हैं और लगभग 50 साल से प्रोफेशनल थियेटर कंपनी भी चला रहें हैं, तो थियेटर को कैरियर बनाकर आपने जो अपना पूरा जीवन इसे समर्पित कर दिया है, उसके बारे में आप अब क्या सोचते हैं?
हबीब साहब – मैंने अपना पूरा जीवन थियेटर को समर्पित इसलिए किया है कि मुझे इसमें मज़ा आता है और मैं तो बहुत ही optimistic हूं थियेटर को लेकर। वो कायम हो गया है और कायम रहेगा।
धर्मेन्द्र – अपने नाटकों में आपने जो ‘लोक’ के नए मुहावरे की इबारत की है, उसकी प्रेरणा आपको कहां से मिली और इसके प्रयोग का आपका उद्देश्य क्या रहा है?
हबीब साहब – ‘लोक’ की प्रेरणा मुझे गांव वालों के अभिनय, उनके खुलेपन, उनके गाने, उनके नाच को देखकर मिली और इसके चुनने का एक प्रयोजन तो यह रहा कि मैं शिक्षित नागरिक कलाकार के गाल पर एक थप्पड लगाऊं। मतलब यह है कि उनसे कहीं बेहतर गांव वाले हैं। वे अनपढ हैं, unschooled हैं पर संस्कृति के point of view से बहुत cultured हैं। unschooled हैं मगर educated हैं in the real sense of the world. दूसरी चीज़ ये कि हमारी जो tradition है वो टूट-टूट कर आगे बढ रही है जो पिछली कई सदियों से टूट गई है। 19th century से revival हुआ तो Folk में एक continuity हुई है। एक लगातार विकसित होने की योग्यता थी और मुझे उसमें एक universal language की तलाश थी जो मुझे मिल गई।
धर्मेन्द्र – ‘नया थियेटर’ के बैनर तले ग्रामीण छ्त्तीसगढी कलाकारों के साथ कभी-कभी शहरी कलाकारों ने भी मिलकर प्रस्तुतियां दी हैं तो ‘लोक थियेटर’ को करते वक्त ग्रामीण और शहरी कलाकारों के बीच आपने कैसे सामंजस्य बैठाया?
हबीब साहब – शुरुआती दिनों में हमें बहुत तकलीफ हुई थी लेकिन समय के साथ सब बनता गया और अब नहीं होती।
धर्मेन्द्र – अपनी इतनी लंबी रंग-यात्रा के दौरान आप पहले अभिनेता, फिर निर्देशक और आखिर में नाटककार एवं रूपांतरकार के रूप में बेहद सक्रिय रहे, कौन सी भूमिका आपको ज्यादा चुनौतीपूर्ण लगी?
हबीब साहब – भई ! मुझे acting का हमेशा से शौक रहा है लेकिन अब मैं अपने निर्देशन को ज्यादा महत्वपूर्ण मानता हूं।
धर्मेन्द्र – आप रायपुर के रहने वाले हैं और ‘नाचा’, ‘करमा’, ‘ददरिया’ आदि को करीब से महसूस किया होगा आपने जबकि अभिनय का प्रशिक्षण आपने यूरोपीय देशों से ली है, तो आपकी संवेदना के ये जो दो आयाम हैं उनके बीच कैसे संतुलन बनाते हैं आप?
हबीब साहब – बंबई में ‘इप्टा’ के साथ मैं इनके करीब आया और आता गया। लेकिन यूरोप में चुंकि तमाम सुविधाएं थीं और मन थोडा लगता भी था लेकिन मैंने उस मोह का त्याग किया क्योंकि मैं अनुभव करता था कि एक भिन्न भाषा, संस्कृति और भिन्न दर्शक समूह के बीच मैं काम नहीं कर सकता और खुद को अभिव्यक्त भी नहीं कर पाता।
धर्मेन्द्र – आपने ‘नया थियेटर’ के लिए छ्त्तीसगढी कलाकारों को चुना, जबकि आपके नाटकों की मूल प्रवृति यथार्थवादी ही रही है। तो क्या आपको कभी इस बात का खतरा महसूस हुआ कि गांव-देहात से आए लोक-कलाकार शहरी मंच पर महज प्रतिरोपित दिखाई दें?
हबीब साहब – नहीं, ऐसा नहीं है। पीटर ब्रुक ने इसका जवाब दे दिया है। उन्होंने कहा है कि ‘नया थियेटर’ हर मुमकिन कोशिश करता है गांव वालों को गलत रास्तों से बचाने के लिए। यह इस हिसाब से कि उनके पास कितनी बडी पूंजी है लोक परंपरा की, लेकिन यह अहसास दिलाने से ख्याल आता है। यह मेरा अनुभव और observation भी है कि जब उडीसा के गांवों की साडियों को कमला देवी चट्टोपाध्याय ने बढावा दिया तो शहरी लडकियां और औरते भी पहनने लगीं। और जब शहरी पहनने लगीं तो गांव वालों ने उनकी नकल में अपनी चीज़ को फिर से अपना लिया। मतलब उनको खुद ही अपनी कदर नहीं मालूम थी लेकिन जब देखा कि उसे फैशन में औरते पहन रहीं हैं उनकी बुनी हुई साडियां तो खुद भी पहनने लगीं। कहने का मतलब यह है कि देखकर ही अच्छी चीज़ों की चेतना आई और अगर अच्छी चीज है तो उसकी कदर भी है। लेकिन आज कदर इतनी नष्ट कर दी गई है, इतनी brain washing हो गई है, इतनी घृणा से देखा गया है गांव वालों को कि वे भूले-भटके हैं कि कितनी कमाल की चीज़े हैं उनके पास में। लेकिन अब ढेर सारे NGO और उनके माध्यम से, जाने-अनजाने आपके और कमला देवी के माध्यम से भी कदर बढ रही है। तो इसलिए ऐसा कुछ नहीं है लेकिन फिर भी अब दुनिया भर की शक्तियां, forces खुले हैं, टेलीविजन के माध्यम से, मंडी के माध्यम से, communication centre से कोई नहीं बचा है। सब पर असर पड रहा है। तो इसमें एक आदमी अपनी कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं कर सकता। फिर भी हमने जितना हो सका, किया। और ये ताकतें लगीं हुईं हैं नष्ट करने में हमारी परंपरा को, हमारे संस्कारों को। तो अब ये भले ही ज्यादा शक्तिशाली हों लेकिन मेरा ख्याल है कि हम सब मिलकर एक जागृति पैदा करें, चेतना उजागर करें तो इसे रोका जा सकता है।
धर्मेन्द्र – ‘इप्टा’ या ‘जन नाट्य मंच’ जैसे संगठनों का असर धूमिल पडने के बाद आज ‘हिंदी थियेटर’ एक सश्क्त सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में कहीं दिखाई नहीं दे रहा है, तो ऐसे में आपने अपने लिए कौन सी भूमिका चुनी है?
हबीब साहब – मैंने ‘वाम पक्ष’ की भूमिका चुनी है, ‘व्यवस्था विरोधी’ भूमिका में मैं यकीन करता हूं। देखिए जब ‘इप्टा’ शुरू हुआ तो केवल CPI थी, यह उनका शुरू कराया हुआ था। लेकिन बाद में CPI के दुनिया भर के तमाम टुकडे हो गए, तो आप फिर ये क्यों उम्मीद करते हैं कि ‘इप्टा’ compact रहेगा। तो मतलब कहने का यह है कि बहुत ना सही मगर वह भूमिका कुछ तो ‘नया थियेटर’ है, विवेचना कर रहा है, अभिलाप कर रहा है। बहुत से, कानपुर, पटना, छ्त्तीसगढ, इसमें शोलापुर, कोल्हापुर, ये अलग-अलग नाम हैं जो कर रहें हैं और प्रगतिशील थियेटर भी हैं। तो उस आंदोलन से ‘नास्टैल्जिया’ को लेकर कुछ नहीं कर पाओगे। वो ज़माना जो बीत गया सो बीत गया। अब आज क्या हो रहा है यह देखिए, आइन्दा उसी में क्या संभावना है, वो देखिए। थोडा सब्र कीजिए और कोशिश कर देखिए कि ज्यादातर अच्छे थियेटर निकल रहें हैं, ‘मानवतापरक थियेटर’, ‘प्रगतिशील थियेटर’, ‘जेनुईन थियेटर’।
धर्मेन्द्र – 1982 के ‘एडिनबरा नाट्य-उत्सव’ में जब ‘चरनदास चोर’ को ‘फ्रिंज प्रथम पुरस्कार’ मिला और इस तरह से आपने छ्त्तीसगढी लोक-कलाकारों को वैश्विक मान्यता दिलाई तो कैसा महसूस किया आपने? उस वक्त की कोई बेहद रोचक बात जो आप हमसे शेयर करना चाहते हों।
हबीब साहब – बहुत अच्छा लगा मुझे। ‘एडिनबरा’ में जब ‘स्काट्समैन’ न्यूज़ पेपर वालों ने जब announce किया तो उन्होंने मुझसे पूछा कि ‘ये क्या हुआ? हम तो एक लफ़्ज भी नहीं समझ रहे थे फिर भी हमने न सिर्फ प्रथम पुरस्कार दिया बल्कि अब तक की वो परंपरा भी तोड दिया जिसमें हम आखिर में पुरस्कारों की घोषणा करते थे। ‘चरनदास चोर’ को दूसरे दिन ही हमने प्रथम पुरस्कार की घोषणा कर दी।’ माना कि बहुत सी entries अभी बाकी थीं, 52 International entries में जब ‘चरनदास चोर’ की जीत हुई तो अभी सब खत्म नहीं हुए थे। लेकिन जब सब खत्म हो गए तब भी ‘चरनदास चोर’ को कोई आंच नहीं आई। प्रथम award उसी को मिला और उन्होंने फिर मुझसे पूछा कि यह क्या था? तो मैंने जवाब दिया कि ‘मैं लाईटिंग बूथ में था और यह देख रहा था कि ये कलाकार कुछ इस तरह का performance कर रहे हैं कि जैसे अपने चौपाल में कर रहे हों और यह कह रहे हैं कि ‘हम इंसान की एक बोली बोल रहे हैं, आप इंसान हैं, हमारी बोली समझते रहेंगे।’ चुनाचे ये चीज़ थी जो थियेटर में एक मैजिक की तरह होती है जो आपके सिर चढके बोलती है। आपने देखा उनके गाने में, नाच में, संवाद में, कुछ थे एक vibration जिसे आपने पकड लिया था, जिनमें सब गोरे थे। हिंदुस्तानी बहुत ही कम थे मुश्किल से गिनतियों में, उंगलियों में गिन ले आप, जबकि हाल छः सौ लोगों का था।
धर्मेन्द्र – ‘नया थियेटर’ के वे शुरुआती कलाकार जिन्होंने आपके साथ अनेक अविस्मरणीय प्रस्तुतियां दी थी, आज उनमें से ज्यादेतर नहीं हैं और आप भी उतने सक्रिय नहीं रहे हैं तो ‘नया थियेटर’ के भविष्य के बारे में आप क्या सोचते हैं?
हबीब साहब – आज ज्यादेतर उनमें से मर गए हैं लेकिन अगर टेलीविजन उनका पीछा करना छोड दे तो शायद वह चल जाएगा, जो उसे नष्ट करने पर आमादा है। लेकिन फिर भी कुछ लोग हैं जो कर रहे हैं genuine. छ्त्तीसगढी आज-कल, program के नाम पर जो ‘नाचा’ रात भर होता था, अब दो-ढाई घंटे का ही कार्यक्रम कर लेते हैं जिसका नज़रिया भी डिस्को हो गया है। इसी तरह गुजरात का ‘गरबा’ और महराष्ट्र का ‘लावडी’ भी प्रभावित हो रहा है। इस तरह से जो ये प्रथा शुरू हो गई है, वह बहुत ही खतरनाक है।
धर्मेन्द्र – ‘स्पिक मैके’ के साथ कैसे और किन परिस्थितियों में जुडे आप?
हबीब साहब – ‘स्पिक मैके’ अच्छा काम कर रहा है। वे tradition को सवारने की कोशिश कर रहें हैं तो उनका मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूं। बडे-बडे उस्तादों को उन्होंने catch किया है। भीनसेन जोशी जैसे वो तमाम उस्ताद उसमें शामिल हैं। मैं भी शामिल हूं, बिस्मिल्ला खां भी थे। तो ये बच्चों में, स्कूलों में, कालेजों में एक नई अवेयरनेस पैदा कर रहे हैं कि आपके पास जो परंपरा है वो काबिले-कद्र है। ऐसी चीज़ नहीं है कि यह कल की थी, कल की ही रहेगी। आज के काम की नहीं है, ऐसी बात नहीं है। और वो हमेशा काम आएगी और उसी रिवायत से हम नवीनता पैदा कर सकते हैं। रिवायत को दबाना, नवीवता के पैरों पर कुल्हाणी मारना है। रिवायतों के होते हुए उसके विरोध में सही, आप नवीनता की उम्मीद कर सकते हैं।
धर्मेन्द्र – आपने ‘फिल्म’ और ‘थियेटर’, दोनों में अभिनय किया है और अन्य भुमिकाओं में भी बेहद सक्रिय रहें हैं, तो कौन सा माध्यम आपके लिए ज्यादा चुनौतीपूर्ण रहा है?
हबीब साहब – मुझे तो थियेटर से लगाव ज्यादा रहा है क्योंकि इसमें बहुत मजा आता है। फिल्मों में इसलिए जाता हूं कि बुला लिया जाता हूं, पैसे मिल जाते हैं जो थियेटर में नहीं है। लेकिन मैं इसे छोडकर कभी नहीं जाता हूं, यह बडी बात है। लेकिन मैं उसे इंकार नहीं करता। वो अलग medium है, उसकी कूबत अलग है।
धर्मेन्द्र – आपके काम की लोगों ने अलग-अलग तरह से व्याख्या की है। किसी ने उसे ‘पारंपरिक’ कहा है, किसी ने ‘प्रयोगधर्मी’ तो किसी ने उसे ‘लोक-अभिव्यक्ति’ के निकट पाया है। स्वंय आप क्या सोचते हैं इस बारे में?
हबीब साहब – मेरे ख्याल से वो अपनी-अपनी सोच है। मुझे सब स्वीकार है जो कुछ लोग कहते हैं। अपनी नज़र में ‘लोक-थियेटर’ के माध्यम से जो ‘माडर्न थियेटर’ मैंने बनाया है, वो ‘लोक-थियेटर’ नहीं है। ‘लोक-थियेटर’ का माध्यम जरूरतः उसके अंदर से निकला है लेकिन वो मेरी कोशिश से नहीं। आप जो पहचाने जाते हैं, तो मैं उसको ‘माडर्न-थियेटर’ कहूंगा – ‘आधुनिक-थियेटर’। ऐसे कई थियेटर हैं जो अलग-अलग अपनी भूमिका अदा कर रहें हैं ‘माडर्न थियेटर’ से निकलकर अलग category में। इनमें रतन थियम हैं, पाणिक्कर हैं, जो अपने-अपने इलाकाई रास्तों से, अलग-अलग रास्तों से अपनी मंज़िलों में पहुंच रहे हैं।
धर्मेन्द्र – अभिनय को लेकर जो अनेक संस्थाएं सक्रिय हैं, मसलन ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ या ‘कला विद्यालय’, उन्होंने अपने पाठ्यक्रमों में हमारी लोक या शास्त्रीय-शैलियों को जगह नहीं दी है। इसीलिए यहां से प्रशिक्षण पाने वाले कलाकार ब्रेष्ट या स्तानिस्लाव्स्की की शैलियों से ज्यादे परिचित होते हैं। हमारी अपनी लोक-शैलियों से उनकी अंतरंगता कम बन पाती है। क्या कहेंगे आप इस बारे में?
हबीब साहब – ये बहुत अफशोशनाक बात है। मुझे तो लगता है कि किसी भी मुल्क के शास्त्रीय और लोक का आपस में गहरा रिश्ता होता है और वही बेस भी होना चाहिए। ब्रेष्ट का वही बेस था, शेक्सपीयर का वही बेस था, खुद स्तानिस्लाव्स्की का भी वही बेस था। उसी प्रक्रिया में एक नई चिंगारी जो निकली, वो आधुनिक बन गई, ब्रेष्ट के यहां भी, स्तानिस्लाव्स्की के और शेक्सपीयर के यहां भी।
धर्मेन्द्र – आज के रंगमंचीय परिदृश्य के बारे में क्या सोचते हैं आप?
हबीब साहब – अच्छा है, बहुत अच्छा है क्योंकि ऐसा लगा कि न आते हुए भी बहुत ही अच्छा है। क्योंकि बहुत से इलाकों में अच्छे थियेटर उभरे हैं।
धर्मेन्द्र – नई पीढी से थियेटर के बारे में क्या कहना चाहेंगे आप?
हबीब साहब – बस, लगे रहो मुन्ना भाई, करते रहो और अपनी ठोकरों से सीखते रहो। यही मेरा पैगाम है नई पीढी को। मजा ना आए तो मत करो। if u enjoy, उसमें अगर रूचि है तो आपको खुद-ब-खुद जो दर्शक है, वह कसौटी है, वह encourage या discourage करेगी। मतलब vibration मिल जाएगा आपको। अगर गलत vibration है तो बंद कर दीजिए। इंजीनियर बन जाइए, कंप्यूटर साइंस में चले जाइए, बिजनेस सवांरिए। थियेटर का पीछा छोड दीजिए। लेकिन अगर थियेटर में रूचि है तो उसमें कितने ही दुख भोगिए, मजा तो आना ही है, मजा तो आता ही है। तो अगर पैशन है तो आप दुख भी भोग लेंगे।
धर्मेन्द्र – आपने फोन पर भी इतना समय मुझे दिया जिसका मैं बहुत आभारी रहूंगा। बहुत-बहुत धन्यवाद सर।
(08 जून 2010 को तनवीर साहब को गए पूरे एक वर्ष हो गए और इन बीते दिनों में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर अनेक सरकारी और गैर-सरकारी आयोजन हुए। एक तरह से ये समय इस रूप में भी महत्वपूर्ण रहे कि तनवीर साहब के कार्यों को किस रूप में लिया जा रहा है और उससे क्या कुछ निकल के आ रहा है और वह भी तब जब अब वे हमारे बीच नहीं हैं। उनकी मृत्यु से दो माह पूर्व लिया गया यह साक्षात्कार बिना किसी संपादन के यहां प्रस्तुत किया जा रहा है तनवीर साहब की स्मृति में।)
धर्मेन्द्र प्रताप सिंह
एम.फिल. (हिंदी)
दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली - 110007
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