गुरुवार, 6 मार्च 2014

मिथकीय चरित्र का पुनराख्यान - कर्ण

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महाभारत के एक प्रमुख मिथकीय चरित्र ‘कर्ण’ के जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रसंगों को आधार बनाकर हेश्नाम कन्हाईलाल के आलेख और निर्देशन में ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ के द्वितीय वर्ष के छात्रों ने ‘कर्ण’ नामक एक अनुपम नाट्य प्रस्तुत दी. कन्हाईलाल की एक बड़ी विशेषता है और थियेटर को लेकर उनका संकल्प भी कि वे थियेटर को प्राकृतिक और ग्रामीण वातावरण से जोड़े रखते हैं. इस प्रस्तुति में उनका यह प्रयास स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. पूर्वोत्तर के जिस मणिपुर क्षेत्र से वह संबंध रखते हैं, उस क्षेत्र-विशेष की संस्कृति का प्रभाव इस प्रस्तुति की वेशभूषा, नृत्य, गीत-संगीत, दृश्य परिकल्पना आदि में बड़े सहज रूप में देखा जा सकता है.
इस प्रस्तुति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि अंत तक बरकरार रहने वाली इसकी लयात्मकता में है. बालक कर्ण के योद्धा कर्ण बनने से लेकर आख़िर में शव साधना के बाद कर्ण के उपदेश तक सभी दृश्य एक लय में आगे बढ़ते हैं. यह लयात्मकता न केवल संगीत भर में बल्कि अभिनय के साथ संवादों और उनके स्थान परिवर्तन के दृश्यों में भी गुंथती जाती है. धीमी गति से आगे बढ़ने के कारण भी यह प्रस्तुति कहीं भी बोझिल नहीं लगती.
रंगमंच के घटकों के स्तर पर तो यह प्रस्तुति अपना प्रभाव दर्शकों पर बिखेरती ही है लेकिन संगीत और अभिनय, दो ऐसे महत्वपूर्ण तत्व हैं जो इस प्रस्तुति के केंद्र बिंदु बनते हैं. इन्हीं के सहारे यह प्रस्तुति दर्शकों के और करीब पहुंच जाती है. नाटक के सभी दृश्य एक खास प्रकार की ध्वनि और लय के साथ आगे बढ़ते हैं. ध्वनि और अभिनय एक साथ एक लय में इस तरह से मिल जाते हैं कि दर्शक का तादात्म्य नाटक के आगे बढ़ने के साथ और गहराता जाता है.
रंगमंच मूलतः अभिनेता का माध्यम है. इस प्रस्तुति से यह बात और महत्वपूर्ण रूप से रेखांकित होती है. अन्य पात्रों के साथ केंद्रीय पात्र कर्ण के अभिनय के सहारे यह नाटक आगे बढ़ता है. पहले चलने और फिर चलते-चलते दौड़ने के बाद कर्ण धनुर्विद्या में पारंगत होकर अंततः महाभारत का युद्ध लड़ने के लिए भी तैयार हो जाता है. बालक कर्ण के महान कर्ण बनने का यह पूरा दृश्य बिना किसी वाचिक संवाद के केवल संगीत के सहारे अद्भुत रूप में आगे बढ़ता है.
बिल्कुल ही सादे मंच पर सारा कार्य-व्यापार पूरा होता है. दृश्य-सज्जा के नाम पर पीछे बस एक सादा सिंहासन बना होता है. मंच के बीचों-बीच में थोड़ी ऊंचाई लिए एक चबुतरा है. आरंभ में कर्ण इसी पर युद्ध हेतु तैयार होता है और अंत में उसका शव उसी पर रखा जाता है. दृश्य परिकल्पना का यह केंद्रीय स्थल हैयुद्ध के दौरान पात्रों के गति विधान में पूरे मंच का इस्तेमाल होता है. इससे उनका अभिनय और सजीव बना पड़ता है. रंग-बिरंगे प्रकाश युद्ध के वातावारण को और सजीव रूप में साकार करते हैं.
अंत की ओर बढ़ती हुई प्रस्तुति एक नया मोड़ लेती है. कर्ण की मृत्यु के दृश्य से एक नया विमर्श जुड़ता है. यद्यपि कर्ण के पूरे जीवन में यह प्रसंग उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रहा है लेकिन कन्हाईलाल जी की निर्देशकीय सोच इसे महत्त्वपूर्ण बनाती है. निम्न वर्गीय उत्तराधुनिक विमर्श को शामिल कर यह प्रस्तुति अपने समय की चिंताओं को अपने भीतर समेटती है. प्रस्तुति यह रेखांकित करने में सफल रहती है कि कर्ण, जो अपने जीवन काल में सत्ता और उच्च वर्ग के कुचक्रो से घिरा रहा, उसके मरने के बाद कैसे उसका शव उन्हीं के द्वारा हस्तगत कर लिया जाता है और उसके स्वजनों से अंतिम संस्कार का हक़ तक छीन लिया जाता है.
कर्ण की मृत्यु के पश्चात मां राधा शव साधना करती है – “कर्ण, अगर तुम सचमुच हम निम्न जाति के लोगों को अपने जीवन का हिस्सा मानते हो तो हम तुम्हारा आह्वान करते हैं. हालांकि, पंच तत्वों से बना हुआ तुम्हारा शरीर जलकर राख हो चुका है मगर तुम्हारे प्राण अभी भी शेष हैं. आओ मेरे सामने आओ.”  तब उपस्थित होकर कर्ण कहता है - “हे मां! यह सब कुछ जो मैंने किया वह मेरे रचनाकार कृष्ण द्वैपायन व्यास ने मुझसे करवाया है, मैंने कुछ नहीं किया है. यद्यपि आत्मा और शरीर से उन्होंने मुझे शूद्र नहीं बनाया था लेकिन फिर भी पूरे जीवन मुझे शूद्र माना जाता रहा. एक ऐसा शूद्र जिसकी पीड़ा को अभिव्यक्ति नहीं मिल सकी. मेरी यंत्रणा और कुर्बानी मुझ तक ही सीमित रह गए. आह! मैं देवताओं के महिमा-मंडन का उपकरण होकर रह गया. अफसोस, मेरे अपने लोगों के साथ मेरी पीड़ा को पहचानने की ऐतिहासिक कोशिश नहीं हुई. अगर मैं किसी एतिहासिक कालखण्ड में पैदा हुआ होता तो शायद किसी का नेतृत्व कर सकता लेकिन अभी कुछ नहीं. हे मां! दलितों और दमितों का महाभारत जब भी हो, मुझे फिर से अपने गर्भ में धारण करना.”
कर्ण के इसी कथन से नाटक समाप्त होता है. प्रस्तुति का एक बड़ा उद्देश्य जाति और वर्ग के विमर्श को उठाना भी था जो आख़िरी में खुले रूप में आकार लेता है. नाटक अपने विषय के अनुरूप ही तनाव को बरकरार रखता है. कन्हाईलाल ने कर्ण के चरित्र को अस्मिता के रूपक में बदल दिया है जो उनके रंगमंच की एक खास पहचान है. इस चरित्र की वे ऐतिहासिक नहीं साहित्यिक अवस्थिति के रूप में पहचान करते हैं. नाटक में प्रसंगो को चुनने में एक खास दृष्टिकोण अपनाया गया है जो दर्शको से एक गंभीर चिंतन की मांग करता है.

                                  धर्मेन्द्र प्रताप सिंह

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

‘नौटंकी’ का संकट

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‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ द्वारा आयोजित ‘भारत रंग महोत्सव’ (भारंगम) के सोलहवेंसंस्करण की शुरुआत जहां महत्त्वपूर्ण बदलावों, ठोस योजनाओं और कुछ नया करने की इच्छा शक्ति के साथ हुई तो इससे कम से कम इतना तो स्पष्ट हो गया कि इस नाट्य प्रशिक्षण संस्थान की कार्य-पद्धति को लेकर समय-समय पर जो प्रश्न-चिन्ह लगाये जाते रहे थे वे एक हद तक उचित थे और प्रायः उनमें सुधार की पर्याप्त संभावनाएं भी थीं। इस वर्ष के ‘भारंगम’ में लोक नाट्यरूपों की प्रस्तुतियों की बढ़ती संख्या को भी इसी बदलाव और परिवर्तन के अभिलक्षण के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए।
‘सोलहवें भारंगम’ के तीसरे दिन उत्तर प्रदेश के ‘बृजकला संस्थान’ द्वारा नौटंकी ‘अमर सिंह राठौर’ की प्रस्तुति कई दृष्टिकोणों से महत्त्वपूर्ण और आकर्षित करने वाली रही मुगलकालीन पटकथा पर आधारित इस नौटंकी के केंद्र में शाहजहां के सिपहसालार अमर सिंह राठौर रहे सांप्रदायिक सद्भाव, वफादारी और वीरता के अनेक दृश्यों के माध्यम से यह प्रस्तुति अपना सामाजिक उद्देश्य तो प्रकट करती ही है लेकिन हास्य-व्यंग्य के अनेक मार्मिक दृश्यों द्वारा समकालीन स्थितियों पर गहरा एवं सटीक प्रहार इसके प्रभाव में और भी वृद्धि करता है। नगाड़े, ढोलक और हारमोनियम की नाद में ऊंचे स्वर और लंबे तान में गायन ने दर्शकों का खूब मन मोहा और अमर सिंह राठौर की प्रस्तुति सफल और सार्थक रही
वस्तुतः किसी भी समाज का उसकी परंपराओं से अलग होना अपने जड़ से कटने और अपनी पहचान के खोने जैसा है यद्यपि यह भी सही है कि मृत परंपरा को ढोना उचित नहीं है लेकिन बिना परंपरा का समाज भी उचित नहीं होता है परंपरा से ही समाज और समाज से ही परंपरा बनती है और ये लोक नाट्यरूप हमारी विकासशील परंपरा की ही आधार और पहचान हैं और ऐसे में इनका संरक्षण आवश्यक है क्योंकि परंपरा से विमुख पश्चिम का हाल किसी से छिपा नहीं है
लेकिन आज इसमें भी दो राय नहीं कि नौटंकी का दायरा बहुत ही सीमित हो चुका है इसके अनेक सामजिक-आर्थिक कारण जिम्मेदार रहे हैं परंतु पूर्व में नौटंकी उत्तर भारत की प्रमुख नाट्यरूप रही है और आमजन के चित्त के संस्कार का प्रमुख माध्यम भी लेकिन पिछले लगभग दो दशकों से भी अधिक समय से आर्थिक सशक्तिकरण, मध्यवर्गीय चेतना के उफान और एक ख़ास किस्म की उत्तर-आधुनिकता के बढ़ते दुष्प्रभाव ने दर्शकों के एक बड़े वर्ग को अपने घेरे में ले लिया और फलस्वरूप उनके मनोरंजन की भूख फिल्मों, गानों और अन्य अनेक माध्यमों से पूरी होने लगी समग्र रूप से इन सभी माध्यमों ने दर्शक वर्ग की सुरुचि और चेतना में एक प्रकार का परिवर्तन ला दिया है फलतः आज लोककलाएं लोगों के मनोरंजन के साथ शिक्षा और संस्कार का महत्त्वपूर्ण साधन नहीं बन पा रही हैं और नौटंकी समेत अनेक लोकनाट्य शैलियों को आज अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है
नौटंकी जन-मानस से जुड़ी हुई जीवंत, लोकप्रिय और प्रभावशाली लोकविधा है। अतः सरकार के अलावा सामाजिक संस्थाओं की ओर से भी इसे संरक्षण और प्रोत्साहन मिलना चाहिए। लेकिन नौटंकी के विस्तार और प्रशिक्षण के लिए खोले गए अनेक सरकारी संस्थानों का हाल भी किसी से छिपा नहीं हैं स्पष्ट उद्देश्य और प्रभावी गति के बिना ही रेंग रहे ऐसे संस्थानों का हश्र भी अन्य सरकारी योजनाओं के जैसा ही है। नौटंकी को इस संकट से उबारने हेतु निश्चय ही कुछ ठोस प्रयासों की आवश्यकता है
वस्तुतः पुरानी नौटंकियां कम से कम पचास या कई तो सौ साल से भी ज्यादा की पुरानी हैं उनका न तो किसी प्रकार से संरक्षण किया जा रहा है और न ही आज नई नौटंकियों की रचना हो रही है अतः नई नौटंकियां लिखने हेतु प्रोत्साहन के साथ ही पुराने का संरक्षण भी करना होगा पुरानी नौटंकियों में भाषा के स्तर पर भी कई समस्याएं हैं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए इस क्षेत्र में कुशल और व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान न होने से भी नए लोगों का इसमें प्रवेश नहीं हो पा रहा हैं जो कुछ लोग इस क्षेत्र में आ रहे हैं वे अपने निजी शौक के कारण आ रहे हैं न कि इस क्षेत्र की संभावनाओं के कारण। असल समस्या तब खड़ी होती है जब इस क्षेत्र में रोजगार न होने के कारण वे इसे बीच में ही छोड़कर चले जाते हैं इन्हीं शौकिया लोगों की जिद के सहारे किसी तरह से नौटंकी जीवित है। अतः अभिनेताओं को प्रोत्साहन और उचित पारिश्रमिक देने के साथ नौटंकी संगठनों को आर्थिक मदद मुहैया करानी होगी और तब जाकर इनकी माली हालत में कुछ सुधार होगा और हम पुनः अपने अतीत से खुद को जोड़ सकेंगे
नौटंकी से जुड़े लोगों के लिए भी यह आवश्यक है कि वे आज की जरूरतों को समझें और उस अनुसार नई नौटंकियों की रचना करें पूर्व के प्रेम-प्रसंगों या ऐतिहासिक-पौराणिक कथाओं में ही आज का व्यक्ति अपने जीवन का सच खोजे, यह आवश्यक नहीं है! समय बदल रहा है और ऐसे में अगर नौटंकी को आज के समय के साथ चलना है तो उसे भी अपनी विषयवस्तु में बदलाव करना होगा बदली हुई परिस्थियों के अनुसार नए विषयों को चुनकर नई नौटंकियों की रचना करनी होगी साथ ही नौटंकी के अभिनय में भी स्वरूपगत बदलाव लाना होगा क्योंकि आज केवल गायन और संगीत से ही काम चलने वाला नहीं है इसी प्रकार से आधुनिक रंगमंच के तत्वों को समंजित करके भी नौटंकी अपने स्वरूप में कुछ सकारात्मक बदलाव ला सकती है
नए-नए प्रयोग होने चाहिए और इसलिए पारसी रंगमंच की छाया से बाहर निकलकर नौटंकी को नए प्रयोगों को आत्मसात करना होगा अगर ऐसा न हुआ तो वह दिन दूर नहीं जब नौटकी इतिहास का हिस्सा भर रह जायेगी और लोग इसे भूलने में तनिक भी देर न करेंगे

धर्मेन्द्र प्रताप सिंह
यू.टी.ए. (हिंदी विभाग)
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली – 07