महाभारत के एक
प्रमुख मिथकीय चरित्र ‘कर्ण’ के जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रसंगों को आधार
बनाकर हेश्नाम कन्हाईलाल के आलेख और निर्देशन में ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ के द्वितीय वर्ष के छात्रों ने ‘कर्ण’ नामक एक अनुपम नाट्य प्रस्तुत दी.
कन्हाईलाल की एक बड़ी विशेषता है और थियेटर को लेकर उनका संकल्प भी कि वे थियेटर
को प्राकृतिक और ग्रामीण वातावरण से जोड़े रखते हैं. इस प्रस्तुति में उनका यह
प्रयास स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. पूर्वोत्तर के जिस मणिपुर क्षेत्र से वह संबंध
रखते हैं, उस क्षेत्र-विशेष की संस्कृति का प्रभाव इस प्रस्तुति की वेशभूषा,
नृत्य, गीत-संगीत, दृश्य परिकल्पना आदि में बड़े सहज रूप में देखा जा सकता है.
इस प्रस्तुति की सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण उपलब्धि अंत तक बरकरार रहने वाली इसकी लयात्मकता में है. बालक कर्ण के
योद्धा कर्ण बनने से लेकर आख़िर में शव साधना के बाद कर्ण के उपदेश तक सभी दृश्य
एक लय में आगे बढ़ते हैं. यह लयात्मकता न केवल संगीत भर में बल्कि अभिनय के साथ
संवादों और उनके स्थान परिवर्तन के दृश्यों में भी गुंथती जाती है. धीमी गति से
आगे बढ़ने के कारण भी यह प्रस्तुति कहीं भी बोझिल नहीं लगती.
रंगमंच के घटकों के
स्तर पर तो यह प्रस्तुति अपना प्रभाव दर्शकों पर बिखेरती ही है लेकिन संगीत और
अभिनय, दो ऐसे महत्वपूर्ण तत्व हैं जो इस प्रस्तुति के केंद्र बिंदु बनते हैं. इन्हीं के सहारे यह प्रस्तुति दर्शकों के और करीब पहुंच जाती है. नाटक के सभी दृश्य एक खास प्रकार की ध्वनि और लय के साथ आगे बढ़ते हैं. ध्वनि और अभिनय
एक साथ एक लय में इस तरह से मिल जाते हैं कि दर्शक का तादात्म्य नाटक के आगे बढ़ने
के साथ और गहराता जाता है.
रंगमंच मूलतः अभिनेता
का माध्यम है. इस प्रस्तुति से यह बात और महत्वपूर्ण रूप से रेखांकित होती है.
अन्य पात्रों के साथ केंद्रीय पात्र कर्ण के अभिनय के सहारे यह नाटक आगे बढ़ता है.
पहले चलने और फिर चलते-चलते दौड़ने के बाद कर्ण धनुर्विद्या में पारंगत होकर अंततः
महाभारत का युद्ध लड़ने के लिए भी तैयार हो जाता है. बालक कर्ण के महान कर्ण बनने
का यह पूरा दृश्य बिना किसी वाचिक संवाद के केवल संगीत के सहारे अद्भुत रूप में
आगे बढ़ता है.
बिल्कुल ही सादे
मंच पर सारा कार्य-व्यापार पूरा होता है. दृश्य-सज्जा के नाम पर पीछे बस एक सादा
सिंहासन बना होता है. मंच के बीचों-बीच में थोड़ी ऊंचाई लिए एक चबुतरा है. आरंभ में
कर्ण इसी पर युद्ध हेतु तैयार होता है और अंत में उसका शव उसी पर रखा जाता
है. दृश्य परिकल्पना का यह केंद्रीय स्थल है. युद्ध के दौरान पात्रों के गति विधान में पूरे मंच
का इस्तेमाल होता है. इससे उनका अभिनय और सजीव बना पड़ता है. रंग-बिरंगे प्रकाश युद्ध के
वातावारण को और सजीव रूप में साकार करते हैं.
अंत की ओर बढ़ती
हुई प्रस्तुति एक नया मोड़ लेती है. कर्ण की मृत्यु के दृश्य से एक नया विमर्श
जुड़ता है. यद्यपि कर्ण के पूरे जीवन में यह प्रसंग उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रहा है
लेकिन कन्हाईलाल जी की निर्देशकीय सोच इसे महत्त्वपूर्ण बनाती है. निम्न वर्गीय उत्तराधुनिक
विमर्श को शामिल कर यह प्रस्तुति अपने समय की चिंताओं को अपने भीतर समेटती
है. प्रस्तुति यह रेखांकित करने में सफल रहती है कि कर्ण, जो अपने जीवन काल में सत्ता और उच्च वर्ग के कुचक्रो से घिरा रहा, उसके मरने के बाद कैसे उसका शव उन्हीं के द्वारा हस्तगत कर लिया जाता है और उसके स्वजनों से अंतिम संस्कार का हक़ तक छीन लिया जाता है.
कर्ण की मृत्यु के
पश्चात मां राधा शव साधना करती है – “कर्ण, अगर तुम सचमुच हम निम्न जाति
के लोगों को अपने जीवन का हिस्सा मानते हो तो हम तुम्हारा आह्वान करते हैं.
हालांकि, पंच तत्वों से बना हुआ तुम्हारा शरीर जलकर राख हो चुका है मगर तुम्हारे
प्राण अभी भी शेष हैं. आओ मेरे सामने आओ.” तब उपस्थित होकर कर्ण कहता है
- “हे मां! यह सब कुछ जो मैंने किया वह मेरे रचनाकार कृष्ण द्वैपायन व्यास ने
मुझसे करवाया है, मैंने कुछ नहीं किया है. यद्यपि आत्मा और शरीर से उन्होंने मुझे
शूद्र नहीं बनाया था लेकिन फिर भी पूरे जीवन मुझे शूद्र माना जाता रहा. एक ऐसा
शूद्र जिसकी पीड़ा को अभिव्यक्ति नहीं मिल सकी. मेरी यंत्रणा और कुर्बानी मुझ तक
ही सीमित रह गए. आह! मैं देवताओं के महिमा-मंडन का उपकरण होकर रह गया. अफसोस, मेरे
अपने लोगों के साथ मेरी पीड़ा को पहचानने की ऐतिहासिक कोशिश नहीं हुई. अगर मैं
किसी एतिहासिक कालखण्ड में पैदा हुआ होता तो शायद किसी का नेतृत्व कर सकता लेकिन
अभी कुछ नहीं. हे मां! दलितों और दमितों का महाभारत जब भी हो, मुझे फिर से अपने
गर्भ में धारण करना.”
कर्ण के इसी कथन से
नाटक समाप्त होता है. प्रस्तुति का एक बड़ा उद्देश्य जाति और वर्ग के विमर्श को
उठाना भी था जो आख़िरी में खुले रूप में आकार लेता है. नाटक अपने विषय के अनुरूप ही तनाव को बरकरार रखता है. कन्हाईलाल ने कर्ण के चरित्र को अस्मिता के रूपक में बदल दिया है जो उनके रंगमंच की एक खास पहचान है. इस चरित्र की वे ऐतिहासिक नहीं साहित्यिक अवस्थिति के रूप में पहचान करते हैं. नाटक में प्रसंगो को चुनने में एक खास दृष्टिकोण अपनाया गया है जो दर्शको से एक गंभीर चिंतन की मांग करता है.
धर्मेन्द्र प्रताप सिंह